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________________ तत्त्वसार .105 भावनारहितेन मिथ्यात्व-रागादिविषय-कषायसहितेन जीवेग पुरा स्वयमुपातिशुभाशुभकर्मफलं भुजानः सन् रागं न करोति, केवळ रागं न करोति किमु तथैव मारोति / स किंकरोति ? 'सो संचियं विणासइ अहिणवकम्मं प बंई' स:एव ध्याताऽऽत्माराधकः पूर्वशक्षितं पूर्वोपाजितज्ञानावरणाविकर्म उवयागतमनुवयागतं वा कर्म विनाशयति मिजंरयति / नवकं सञ्चित विनाशयति, अपि त्वभिनवं अभि समन्तानबीनमभिनवमपि कर्म नेव बमाति, मकानलबत्, तमःप्रकाशवद्वा ज्ञानांज्ञानयोरन्योन्यविरोषाविति मानमाहात्म्यं सात्वा तदेव स्वसंवेदनमानमुपादेयमिति भावार्यः // 51 // अथ स एव पूर्वोक्तध्याता यदि कर्मफलं भुवानोऽभुखं भावं करोति तदा कर्मणां कर्ता भवतीति दर्शयतिमूलगाथा-भुंजतो कम्मफलं भावं मोहेण कुणइ सुहमसुहं / जह तो पुणो वि बंधइ णाणावरणादि अटविहं // 52 // - संस्कृतच्छाया-भुजानः कर्मफलं भावं मोहेन करोति शुभमधुभम् / यदि तदा पुनरपि बन्नाति शानावरणावष्टविषम् // 52 // आर्गे कर्मका फल भोगता मोहकरि सुख-दुःखभाव करे है सो आठ प्रकार ज्ञानावरणादिक कर्मबंध कर है, असें कहै हैं-. . . भा० व०-कर्म-फल कू जो भोमता मोहकम करि शुभ-अशुभ भावकू करे है सो बहुरि ज्ञानावरणादिक आठ प्रकार कर्म बंधकू बांधे है // 52 // होकर जीवके द्वारा पूर्वकालमें स्वयं उपार्जित शुभ और अशुभ कर्मोक फलको भोगता हुआ रागको नहीं करता है, केवल रागको ही नहीं करता, किन्तु उसी प्रकार द्वेषको भी नहीं करता है। प्रश्न-वह क्या करता है ? - उत्तर-'सो संचियं विणासइ अहिणवकम्मंण बंधेई' अर्थात् वही आत्माका आराधक ध्यान करनेवाला पुरुष पूर्वसंचित अर्थात् पूर्वकालमें उपार्जित ज्ञानावरणादि कर्मको-वे चाहे उदयमें आ रहे हों, अथवा उदयमें नहीं आ रहे हों, विनष्ट करता है, उसकी निर्जरा करता है / वह न केवल संचित कर्मको ही नष्ट करता है, अपि तु सर्व ओरसे आनेवाले नवीन कर्मको भी नहीं बांधता है, क्योंकि जल और अग्निके समान, अथवा अन्धकार और प्रकाशके समान मान और अज्ञानका परस्पर विरोध है / इस प्रकार ज्ञानका माहात्म्य जानकर भव्यजीवोंको वही स्वसंवेदन ज्ञान उपादेय है, अतः उसीकी निरन्तर उपासना करनी चाहिए। यह इस गाथाका भावार्थ है // 51 // अब यदि वही पूर्वोक्त ध्याता पुरुष कर्म-फलको भोगते हुए अशुद्ध भाव अर्थात् राग-द्वेष करता है तो वह कर्मोंका कर्ता होता है, यह दिखलाते हैं - अन्वयार्थ-(कम्मफलं) कर्मोके फलको (भुंजतो) भोगता हुआ अज्ञानी पुरुष (जइ) यदि (मोहेण) मोहसे (सुहमसुह) शुभ और अशुभ (भाव) भावको (कुणइ) करता है, (तो) तब (पुणो वि) फिर भी वह (गाणावरणादि) ज्ञानावरणादि (अट्टविहं) आठ प्रकारके कमंको (बंधइ) बांधता है।
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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