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________________ तत्त्वसार अथ स्वस्यापरस्यापि देहस्य च जरा-रोग-मरणादिकं यो वृष्ट्वाऽदेहात्मन्यात्मनि लोनो भवति सोऽदेही भवतीति प्रतिपादयति-- -मूलगाथा-रोयं सडणं पडणं देहस्स य पिक्खिऊण जर-मरणं / जो अप्पाणं झायदि सो मुच्चइ पंचदेहेहिं // 49 // संस्कृतच्छाया-रोगं शातनं पतनं देहस्य च दृष्ट्वा जरा-मरणम् / - य आत्मानं ध्यायति स मुच्यते पञ्चदेहैः // 49 // टीका-'रोयं' इत्यादि, 'रोयं सडणं पडणं देहस्स य पिक्खिऊण जर-मरणं' यो यः कश्चित्तत्त्वज्ञो भव्यात्मा दृष्ट्वाऽवलोक्य / किं दृष्ट्वा ? रोगं शातनं 'शदल शातने' शीर्यत शातनम्, 'पत्ल पतने' पत्यते पतनम्, कस्य कस्मिन् वा ? देहस्य / तथाऽन्यदपि दृष्ट्वा जरा-मरणम्, 'जरा जुवजो हानौ' जीर्यते जरा, म्रियते मरणम्। जरा च मरणं च जरा-मरणम् / द्वन्द्वकत्वमित्येकत्वम् / पश्चात् किं करोति यः? 'अप्पाणं झायदि' स्वशुद्धात्मानं चिच्चमत्कारमात्र आत्मानं ध्यायति स्मरति नित्यमाराधयतीति / स कथम्भूतो भवति ? 'सो मुच्चइ पंचदेहेहि' स एवान्तरात्मा मुच्यते त्यज्यते / कैः ? कर्तृभतः पञ्चदेहैः। औदारिक-वैक्रियिकाहारक-तैजस-कार्मणरूपाणि शरीराणि देहा उच्यन्ते। पञ्चैव देहा पञ्चदेहाः, तैः पञ्चदेहैः / तदभावान्मिथ्यात्व आगें फेरि कहैं हैं भा० व०–जो देहकै सिड़ना पीड़ा, पतन पड़ना जो जरापणां मरणदशा प्राण-रहित होणां देखकरि, अर आत्मा जो शु चिदानन्दकू ध्याव है सो मुनि पंच देह जो औदारिक वैक्रियिक आहारक तैजस कार्माण एह जे पांच शरीरनिकरि रहित होय है // 49 // . अब अपने और परके भी देहके जरा, रोग और मरण आदिको देखकर जो पुरुष अदेहात्मक अर्थात् जड़रूपतादिसे रहित अपने आत्मामें लीन होता है, वह अदेही अर्थात् शरीर-रहित सिद्ध हो जाता है, यह सूत्रकार प्रतिपादन करते हैं ___ अन्वयार्थ (देहस्स य) देहके (रोयं) रोग (सडणं) सटन और (पडणं). पतनको तथा (जरमरणं) जरा और मरणको (पिक्खिऊण) देखकर (जो) जो भव्य (अप्पाणं) आत्माको (झायदि) ध्याता है (स) वह (पंच देहेहिं) पांच प्रकारके शरीरोंसे (मुच्चइ) मुक्त हो जाता है। टीकार्थ-'रोयं सडणं पडणं' इत्यादि गाथाके अर्थका व्याख्यान करते हैं जो कोई तत्त्वज्ञ भव्यात्मा शरीरके रोगको, सटन अर्थात् सड़न-गलनको और पतन अवस्थाको, तथा जरा और मरणको देखकर 'अप्पाणं झायदि' अर्थात् अपने आत्माका ध्यान करता है अपने शुद्ध, चिच्चमत्कारमात्र आत्माका स्मरण करता है, उसकी नित्य आराधना करता है। प्रश्न-वह कैसा हो जाता है। उत्तर-'सो मुच्चइ पंच देहेहिं' अर्थात् वही अन्तरात्मा मुक्त हो जाता है। प्रश्न-किनसे मुक्त हो जाता है ? उत्तर-संसार-परिभ्रमणके करनेवाले पांच प्रकारके शरीरोंसे मुक्त हो जाता है / औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण इन पांच शरीरोंको देह कहते हैं। .. mo
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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