SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वसार इति तेषामिन्द्रियाणामः विषयास्तः परित्यक्तं रहितमिन्द्रियार्थपरित्यक्तम्, तस्मिन्निन्द्रियार्थपरित्यक्ते / एवंविधे निजात्मस्वरूपे दृष्टे सति किं फलं भवतीति शंका निराकरोति सूत्रकर्ता। तवाहि-'सायह जोइस्त फुलं अमाणुसत्तं खणद्धेण' क्षणार्धन क्षणमात्रेण स्फुटं निश्चितं जायते योगिनो योगिनां वा / कि तत् ? अमानुषत्वं मानुषस्य भावो मानुषत्वम्, न मानुषत्वममानुषत्वं देवत्वं सर्वशत्वं वा भवतीति मत्वा यदेव मिथ्यात्व-रागादिविषयकषायवशवतिनां जीवानामरुचिकर विरक्तिकारकम्, तद्विपरीतानां तु निविषयातीन्द्रियपरमज्ञान-सुखाद्यनन्तगुणात्मतत्त्वसम्यक्भवान-शानानुचरणात्मकाभेवरत्नत्रयात्मकमोक्षमार्ग-मोक्षसुखरतानां भव्यानां तृप्तिजनकं निजात्मस्वरूपं तदेवोपादेयमिति भावार्थः॥४२॥ अब पराव्यपरित्यागेनोपादेयबुद्धपा स्वशुद्धात्मस्वरूपं ध्येयमिति प्रतिपादयति-- मूलगाथा- णाणमयं णियतच्चं मेल्लिय सव्वे वि परगया भावा / ते छंडिय भावेज्जो सुद्धसहावं णियप्पाणं // 43 // संस्कृतछाया-शानमयं निजतस्वं मुक्त्वा सर्वेऽपि परगता भावाः। तान् त्यक्त्वा भाव्यं शुद्धस्वभावं निजात्मानम् // 43 // फेरि हू कहै हैं भा० व०-ज्ञानमय निजात्म तत्त्व ता विना अन्य सर्वभाव परगत ते छांडिकरि निजात्माकू भावना जोग्य है / कैसा है निज आत्मा ? शुद्ध स्वभाव है // 43 // इस प्रकारके इन्द्रियोंके विषयोंसे रहित निज आत्मतत्त्वके देखनेंपर क्या फल होता है ? सूत्रकार इस शंकाका निराकरण करते हैं-'जायइ जोइस्स फुडं अमाणुसत्तं खणद्धेण' अर्थात् . क्षणार्धसे-आधे क्षणमात्रमें योगीके या योगियोंके प्रकट हो जाता है। प्रश्न-वह क्या प्रकट हो जाता है ? उत्तर-अमानुषत्व प्रकट हो जाता है / मनुष्यके भावको मानुषत्वं कहते हैं, ऐसे मानुषत्व के अभावको अमानुषत्व कहते हैं / वह अमानुषत्व देवत्व या सर्वज्ञत्वरूप होता है। वह अमानुषत्व जो मिथ्यात्व, रागादि, विषय और कषायवशवर्ती जीवोंको अरुचिकर है, विरक्तिकारक है, वही मिथ्यात्व, रागादि विषय और कषायसे विपरीत निविषयरूप अतीन्द्रिय परमज्ञान, सुख आदि अनन्त गुणात्मक सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और चरणात्मक अभेदरत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग और मोक्ष-सुखमें निरत भव्यजनोंको अत्यन्त तृप्तिजनक है। अतएव वही निजात्मस्वरूप उपादेय है / यह इस गाथाका भावार्थ है // 42 // ___ अब परद्रव्यके परित्याग-पूर्वक उपादेय बुद्धिसे निज शुद्धात्मस्वरूप ध्यान करनेके योग्य है, यह सूत्रकार प्रतिपादन करते हैं अन्वयार्थ-(णाणमयं) ज्ञानमयी (णियतच्चं) निजतत्त्वको (मेल्लिय) छोड़कर (सव्वेवि) सभी (भावा) भाव (परगया) परगत हैं; (ते छंडिय) उन्हें छोड़कर (सुद्धसहाव) शुद्धस्वभाववाले (णियप्पाणं) निज आत्माकी ही (भावेज्जो) भावना करनी चाहिए।
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy