________________ प्रस्तावना उसी प्रकार सिद्धोंको नमस्कारकर तत्त्वसारको उन्होंने पूर्ण किया है। अन्तमें आ० देवसेन कहते हैं कि जिस स्व-परगत तत्त्वमें तल्लीन होकर जीव इस विषम संसार-सागरको पार करते हैं वह सर्व जीवोंको शरण देनेवाला तत्त्व सदा काल कल्याणमय रहे / (गाथा 73) जो सम्यग्दृष्टि पुरुष देवसेन मुनि-द्वारा रचित इस तत्त्वसारको सुनकर आत्मतत्त्वकी भावना करेगा, वह शाश्वत सुखको पावेगा / (गाथा 74) ___ तत्त्वसारके आद्योपान्त अध्ययन करनेके पश्चात् यह प्रश्न उठता है कि स्वगत तत्त्वकी उपलब्धि तो सर्व परिग्रह, आरम्भ और इन्द्रिय-विषयोंसे रहित परमयोगियों-निर्ग्रन्थ साधुओंको ही हो सकती है, तब आजका मुमुक्षु या आत्महितेच्छु श्रावक या जेन क्या करे ? इस प्रश्नका उत्तर आ० देवसेनने तत्त्वसारकी तीसरी गाथाके चतुर्थ चरण और चौथी गाथामें संक्षेप रूपसे सर्वप्रथम ही दे दिया है और विस्तृत उत्तर उन्होंने अपने द्वारा रचित भावसंग्रहके पंचम गुणस्थानके वर्णनमें दिया है / उसका संक्षेपसे यहां वर्णन किया जाता है। मुमुक्षु या आत्म हितेच्छु साधकको आर्त-रौद्रध्यानकी उग्र प्रवृत्तिको रोकनेके लिए सर्वप्रथम सम्यक्त्वको धारणके साथ स्थूल हिंसा, झूठ, चोरी और कुशीलका त्याग, परिग्रहका परिमाण करना, तथा मद्य, मांस, मधुके सेवनका यावज्जीवनके लिए त्याग करना आवश्यक है। उक्त अशुभ कार्योके परित्यागके साथ उनकी रक्षाके लिए दिग्व्रत, देशव्रतके परिणामकर व्यर्थक संकल्प विकल्पोंके त्यागके लिए अनर्थदण्डोंका-जिनसे अपना कोई भी प्रयोजन नहीं है-ऐसे पापोपदेश, हिंसादान, प्रमादचर्या, अपध्यान सौर खोटो कथाओंके सुननेका त्याग करना चाहिए। इन अशुभ कार्योंको छोड़नेके पश्चात् शुभ क्रियाओंमें प्रवृति करना आवश्यक है / शुभ क्रियाओंमें प्रवृत्ति करनेके लिए ऐसे स्थान पर बैठना आवश्यक है कि जहाँ चित्तके विक्षेप करने वाले बालकोंका, दुष्ट स्त्री, पुरुष और पशु-पक्षियोंका संचार एवं कोलाहल सुनाई न दे। यदि अपने घरमें यह संभव न हो तो किसी धर्मस्थान या एकान्त स्थानमें जाकर नियत कालके लिए सामयिकको स्वीकारकर बैठना चाहिए। . सामायिक स्वीकारकर सर्वप्रथम नौवार णमोकार मंत्रका स्मरण 27 श्वासोच्छ्वासोंमें करना चाहिए / अर्थात् ‘णमो अरिहंताणं' पदका श्वास खींचते हुए, ‘णमो सिद्धाणं' पदका श्वास छोड़ते हुए स्मरण करे / इसप्रकार एक श्वासोच्छ्वासमें दो पदोंका स्मरण करे। पुनः श्वास खींचते हुए 'णमो आयरियाणं' पदका और श्वास छोड़ते हुए णमो उवज्झायाणं' पदका स्मरण करे / तत्पश्चात् श्वास खींचते हुए ‘णमो लोए' और श्वास छोड़ते हुए 'सव्वसाहूणं' पदका स्मरण करे। इस प्रकार एकवार णमोकार मंत्रको तीन श्वासोच्छ्वासोंमें स्मरण करते हुए नौ वार णमोकारमंत्रका मनमें स्मरण करना चाहिए। इस प्रक्रियाके करनेसे दो लाभ तत्काल प्राप्त होते हैं-पहिला यह कि सामायिक स्वीकार करनेके पूर्व मनमें जो आरम्भ-परिग्रह सम्बन्धी आर्त और रौद्रध्यानरूप संकल्प-विकल्प उठ रहे थे, उनका निरोध होता है और दूसरा लाभ पंच परमेष्ठीके स्मरणरूप शुभकार्यमें प्रवृत्ति प्रारम्भ होती है। तत्पश्चात् कुछ देर तक पांचों परमेष्ठियोंके स्वरूपका चिन्तन करते हुए उनकी प्राकृत, संस्कृत या हिन्दी आदि भाषामें रचित जो स्तोत्र पाठ आदि कंठस्थ हो उसे बोले, या पुस्तकके आधारसे मन्द-मन्द स्वरमें उच्चारण करे / पुनः चौबीस तीर्थंकरोंको स्तुति पढ़े। तदनन्तर प्राकृत,