________________ तत्त्वसार सुखद परम आनन्द प्रकट नहीं होता है तो फिर उस ध्यान या योगसे क्या करना है ? कुछ भी नहीं। (गाथा 59) ध्यान-स्थित भी योगीका मन जब तक किंचित् मात्र भी चंचल रहेगा। तब तक परम सुखदायक परमानन्द प्रकट नहीं हो सकता। (गाथा 60) किन्तु जब मनकी चंचलता रुक जाती है और सर्व संकल्प-विकल्प शान्त हो जाते हैं, तब जो आत्माका शाश्वत स्वभाव प्रकट होता है वही मोक्षका कारण है / (गाथा 61) ___आत्म-स्वभावमें स्थित योगीको कर्मोदयसे आनेवाले भी इन्द्रियोंके विषयोंका भान नहीं होता, किन्तु उस समय वह अपनी शुद्ध आत्माको ही जानता और देखता है। (गाथा 62) जिसं योगीको आत्मस्वभावकी उपलब्धि हो जाती है, उसका मन इन्द्रियोंके विषयोंमें नहीं रमता। किन्तु निराश होकर आत्माके साथ एकमेक हो जाता है, अथवा यों कहना चाहिए कि वह ध्यानरूपी शस्त्रसे मर जाता है / (गाथा 63) . - मन कब तक नहीं मरता ? इस प्रश्नका उत्तर देते हुए बताया गया है कि जब तक सम्पूर्ण मोहकर्मका क्षय नहीं होता, तब तक मन नहीं मरता है। किन्तु मोहकर्मका क्षय होते ही मनको मरण तो होता ही है, साथमें शेष रहे घातिया कौका भी क्षय हो जाता है / (गाथा 64) इसका कारण यह है कि मोहकर्म सब कर्मोंका राजा है। युद्धमें राजाके मर जानेपर सेना जैसे स्वयं मलितमान होकर भाग जाती है, उसी प्रकार मोहरूपी राजाके मरतेही शेष घातिया कर्म भी नष्ट हो जाते हैं / (गाथा 65) चारों घातिया कर्मोके क्षय होते ही लोकालोकका प्रकाशक और तीनों कालोंके सर्व द्रव्योंकी गुण-पर्यायोंको जानने वाला निर्मल केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है और वह योगी सयोगी-सकल परमात्मा बन जाता है / (गाथा 66 ) भावसंग्रह गाथा 673-674) ___ जबतक योगीका आयुकर्म विद्यमान रहता है तबतक वह तीर्थंकरकेवली या सामान्यकेवली की अवस्थामें भव्य जीवोंको मोक्षमार्गका उपदेश देते हुए विहार करते रहते हैं। जब आयुकर्म अन्तर्मुहूर्त मात्र रह जाता है, तब वे योगोंका निरोधकर अयोगिकेवली बन जाते हैं। (भावसंग्रह गाथा 679) उस अवस्थामें वे शेष अघातिया कर्मोंका क्षय करते हुए त्रिभुवन-पूज्य और लोकाग्रनिवासी सिद्ध परमेष्ठी हो जाते हैं / (गाथा 67) सिद्ध जीव गमनागमनसे विमुक्त, हलन-चलनसे रहित, अव्याबाध सुखमें स्थित और परर्थ गणोंसे या परम आठ गणोंसे संयुक्त होते हैं। (गांथा 68) उस समय वे इन्द्रियोंके क्रमसे रहित होकर सम्पूर्ण लोक-अलोकको और अनन्त गुण-पर्यायोंसे युक्त सर्व मूर्त-अमूर्त द्रव्योंको एक साथ जानते और देखते हैं / (गाथा 69) लोकके अग्रभागसे ऊपर धर्मद्रव्यका अभाव होनेसे उनका गमन नहीं होता। अतः वे अनन्तकाल तक उसी लोकाग्रपर निवास करते हैं / (गाथा 70) यहाँ पर किसीने यह शंका की कि कर्मोंसे मुक्त होते ही जीव नीचेकी ओर या तिरछे पूर्व आदि आठों दिशाओंकी ओर क्यों नहीं जाता ? जबकि सर्वत्र धर्मद्रव्य विद्यमान है ? इसका समाधान करते हुए आ० देवसेन कहते हैं कि यतः जीवका ऊर्ध्वगमन स्वभाव है, अतः वह कर्ममुक्त होते ही ऊपर जाता है / (गाथा 71) सिद्ध जीव पाँच प्रकारके शरीरोंसे रहित, चरम शरीरसे कुछ कम आकारवाले और आगे जन्म-मरणसे विमुक्त रहते हैं / ऐसे सर्व सिद्धोंको मैं नमस्कार करता हूँ। (गाथा 72) इस प्रकार जैसे आ० देवसेनने सिद्धोंको नमस्कारकर तत्त्वसारकी रचना प्रारम्भ की थी,