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________________ 7 // .. 84 तत्त्वसार अथ पुनरपि तमेवार्य द्रढयतिमूलगाया-अप्पसमाणा दिट्ठा जीवा सव्वे वि तिहुयणत्था वि। सो मज्झत्थो जोई ण य रूसइ णेय तूसेइ // 37 // संस्कृतच्छाया-आत्मसमाना दृष्टा जीवाः सर्वेऽपि त्रिभुवनस्था अपि / स मध्यस्थो योगी न च रुष्यति नैव तुष्यति // 37 // टीका-'अप्पसमाणा' इत्यादि, पदखण्डनारूपेण वृत्तिका श्रीपंकजकोतिना व्याख्यानं कियते-'अप्पसमाणा विट्ठा जीवा सव्वे वि तिहुयणत्था वि' कालाविलब्धिवशात् येनान्तरात्मना मानिना त्रिभुवनस्था अपि त्रिभुवनवतिन एकेन्द्रियादि-पञ्चेन्द्रियपर्यन्ताः सूक्ष्मबावररूपाः सर्वेऽपि जीवा निश्चयनयेनात्मसमाना आत्मसदृशा दृष्टाः परिज्ञाता वीतरागसर्वज्ञोक्तागमे(ना)नुभूत्या चान्तरङ्गेऽनुभूता आराषिताः। स कथम्भूतो भवति ? 'सो मन्मत्थो जोई' स मध्यस्थो मध्ये स्वरूपे तिष्ठतोति मध्यस्थो योगः परमसमाषिरस्यास्तीति योगी सन् किं करोति ? 'ण य रूसइ . आगे कहें हैं-आप समान अन्य आत्माकू देखता संता कौन विर्षे राजी-बेराजी हूँ, ऐसे कहै हैं भा० व०-कालादिक लब्धिवशतें ये अन्तरात्मा ज्ञानीने त्रिभुवनका वर्ती एकेन्द्रियादि पंचेन्द्रिय पर्यन्त सूक्ष्म बादररूप सर्व जीव जे हैं ते निश्चयनयकरि आपके समान जाने संते वीतराग सर्वज्ञकरि कह्या आगमकी अनुभूति अनुभव करि, वा अन्तरंगविर्षे अनुभव कीया आराधन कीया सो ज्ञानो कैसा होय है ? मध्यस्थ होय है, मध्यस्वरूप विष तिष्ठ है सो मध्यस्थ योगी परम समाधियुक्त भया संता कहा करे है ? न तो रूसै है, नाही तोषकुं प्राप्त होय है। कोइक दुष्ट जीवकरि विराधित भया संता रोष नांही कर है, अर कोइक विनयवान भव्य जीवकरि अनेक प्रकार स्तुतिकरि स्तुति कीया संता, आराधना कीया संता हर्ष करै नांही। सोही योगी होय है, अर अन्य नामकरि योगी नाही होय है // 37 // अब फिर भी सूत्रकार उक्त अर्थको ही दृढ़ करते हैं अन्वयार्य-(तिहुयणत्था वि) तीन भुवनमें स्थित भी (सव्वे वि) सभी (जीवा) जीव (अप्पसमाणा) अपने समान (दिट्ठा) दिखाई देते हैं, (सो) इसलिए वह (मज्झत्थो) मध्यस्थ (जोई) योगी (ण य) न तो (रूसइ) किसीसे रुष्ट होता है (णेय) और नहीं (तूसेइ) किसीसे सन्तुष्ट होता है। टीकार्य-'अप्पसमाणा' इत्यादि गाथाका टीकाकार श्री कमलकीत्ति व्याख्यान करते हैंत्रिभुवनमें स्थित सभी जीव जिसने अपने समान देखे हैं, अर्थात् कालादिलब्धिके वशसे जिस अन्तरात्मा ज्ञानी पुरुषने तीनों लोकवर्ती एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रियों तकके सूक्ष्म और बादर सभी जीव निश्चयनयसे वीतराग सर्वज्ञ देवके द्वारा कहे गये आगमके द्वारा अपने सदृश जाने हैं और अन्तरंगमें भलीभांतिसे अनुभव किये हैं। प्रश्न-वह व्यक्ति कैसा होता है ? उत्तर-वह योगी मध्यस्थ होता है। जो इष्ट राग और अनिष्ट द्वेष इन दोनोंके मध्यमें किसी एकरूप न होकर अपने ज्ञायकस्वरूपमें रहता है, वह मध्यस्थ कहलाता है। .
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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