________________ चतुर्थ पर्व जिनमतमतसारं धर्मकामार्यबीजं सुर-नरपतिपूज्यं तत्त्वविद्-ध्येयभूतम् / स्व-परगतसुतत्त्वं मोक्षमार्गस्वरूपं सुरमृगपतिपुत्र स्वात्मलीनं कुरु त्वम् // (इत्याशीर्वादः) अथ स्वसमय-परसमयस्वरूपं मनसि धृत्वा सूत्रकाराः परमार्थवेदिनो वक्ष्यमाणं सूत्रमिदं प्रतिपादयन्ति / तत्रादौ परसमयस्वरूपं कथ्यतेमूलगाथा-ण लहइ भव्वो मोक्खं जावय परदव्ववावडो चित्तो। उग्गतवं पि कुणंतो सुद्धे भावे लहुं लहइ // 33 // संस्कृतच्छाया-न लभते भव्यो मोक्षं यावत् परद्रव्यव्यापृतश्चित्तः। 'उपतपोऽपि कुर्वन् शुद्ध भावे लघु लभते // 33 // टीका-'ण लहइ' इत्यादि, न लभते प्राप्नोति / कोऽसौ ? भव्यः, आसन्नभव्योऽपि / कम् ? मोक्षम् / 'कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो. मोक्ष' इति वचनात् / केवलज्ञानाद्यनन्तस्वगुणस्वरूपम् / जो जिन-भाषित मतका सार है, धर्म अर्थ और काम पुरुषार्थका बीज है, देवेन्द्रों और नरेन्द्रोंसे पूज्य है, तत्त्वज्ञोंके द्वारा ध्यान करनेके योग्य है, और मोक्षमार्गस्वरूप है, ऐसे स्वगत और परगत तत्त्वको हे अमरसिंहके पुत्र, तुम इसे अपनी आत्मामें लीन करो अर्थात् धारण करो। ___ (इति आशीर्वादः) . आगे कहै है-जितनें परद्रव्य विष आसक्तचित्त जीव तप करता हू मोक्षकू नाहीं प्राप्त होय है___भा० व०-भव्य है सो जितनें परद्रव्य विर्षे आसक्तचित्त तिष्ठै है तितने मोक्षकू नाही प्राप्त होय है / कैसा है भव्य ! उग्रोग्र तप बाह्याभ्यन्तर द्वादश प्रकारका करता, अर परीषह सहन शील हू, अर शुद्ध मिथ्यात्व-रागादि रहित भाव होत संत स्व-संवेदन ज्ञान परिणाम होत संतै, अर शुद्धोपयोग होत संत लघु कहिए शीघ्र प्राप्त होय है पूर्वोक्त मोक्ष सो ही आसन्न भव्य कहिए निकट भव्य है सो // 33 // .... अब स्वसमय-परसमयके स्वरूपंको मनमें धारण करके परमार्थवेदी सूत्रकार यह वक्ष्यमाणसूत्र कहते हैं / वहाँ प्रथम परसमयका स्वरूप कहते हैं अन्वयार्थ-(जावय) जब तक (चित्तो) मन (पर दव्ववावडो) पर द्रव्योंमें व्याप्त (व्यापारयुक्त) है, तब तक (उग्ग तवं पि) उग्र तपको भी (कुणंतो) करता हुआ (भव्वो) भव्य जीव (मोक्खं) मोक्षको (ण लहइ) नहीं पाता है। किन्तु (शुद्ध भावे) शुद्ध भावमें लीन होने पर (लहुं) शीघ्र ही (लहइ) पा लेता है। टीकार्थ-'ण लहइ भव्वो मोक्ख' इत्यादि गाथाके अर्थका व्याख्यान करते हैं-निकट भव्य भी जीव सम्पूर्ण कर्मोंके अभावरूप और केवलज्ञानादि अनन्तगुणस्वरूप मोक्षको नहीं प्राप्त कर पाता है।