________________ श्लो० 735-791 ) वैराग्यरतिः। चारकेऽहं स्थितस्तत्र पङ्कविण्मूत्रपिच्छले / तृषितः क्षुधितो बद्धस्ताडितो बालकैरपि // 764 // राज्यभ्रंशसमुत्थेन 'मनस्तापनपीडितः / प्राप्तो नरकवत् तापं शारीरं मानसं तथा // 765 // तथापि मोहदोषेण निर्विणो न भवादहम् / सुचिरं चारके तत्र दुःखान्यनुभवन् स्थितः // 766 / / क्रोधान्धः सर्वलोकेषु नानासङ्घल्पकीलितः / रौद्ध्यानशिलाक्रान्तो भूरिकालमहं स्थितः / / 767 // अथ मे गुटिका जीर्णा प्राक्तनी भवितव्यता / दत्त्वाऽपरां तां पापिष्ठवासपुर्या निनाय माम् // 768 // सप्तमे पाटके तत्राप्रतिष्ठानगृहे स्थितः / सागराणि त्रयस्त्रिंशन्निभिन्नो वज्रकण्टकैः // 769 // पञ्चाक्षपशुसंस्थाने ततश्च शफरोऽभवम् / पुनर्गतोऽप्रतिष्ठानं शार्दूलोऽहं ततोऽभवम् // 770 // ततः पापिष्ठवासायां गतोऽहं तुर्यपाटके / ततो मार्जारतां प्राप्तः सोढं दुःखं मयाऽतुलम् // 771 / / मुक्त्वाऽसंव्यवहाराख्यं नगरं भवितव्यता / इत्थं स्थानेषु सर्वेषु परिभ्रमयति स्म माम् // 772 // भोजयत्या महामोह-परिग्रहफलान्यहम् / तयाऽगृहीतसङ्केते ! योनौ योनौ विडम्बितः // 773 // भ्रमतोऽनन्तकालं मे तुष्टाऽथ भवितव्यता / श्रान्ता इव तनूभूता मोहाद्या अपि विद्विषः // 774 // पुनर्ग्रन्थिसमीपस्था जाता मे कर्मणः स्थितिः / नीतोऽहं भरतक्षेत्रे भवितव्यतया ततः // 775 // साकेतनगरे नन्दवणिनो जनितः सुतः / भार्याया धनसुन्दर्या गटिकादानयोगतः // 776 // अमृतोदर इत्याख्या मम पित्रा प्रतिष्ठिता / प्राप्तोऽहं यौवनं हृद्यं स्मरसिंहगुहोपमम् // 777 // दृष्टः सुदर्शनः साधुधृतध्यानो वने मया / विहिता देशना तेन भूयो दृष्टः सदागमः // 778 // किश्चिद् भद्रकभावेन नमस्कारादिपाठकृत् / द्रव्यश्राद्धस्ततो जातस्ततोऽगां विबुधालये // 779 // *स्थितो भवनवासित्वे साईपल्योपमस्थितिः / सुखानि तत्र (खानः सदागमबहिष्कृतः // 780 // भार्यया पुनरानीतः पुरेऽहं मानवालये / बन्धुदत्तवणिग्भार्या तत्रासीत् प्रियदर्शना // 781 // तस्यास्तनयभावेन जातोऽहं बन्धुनामकः / सम्प्राप्तयौवनोऽद्राक्षं सुसाधुं सुन्दराभिधम् // 782 // मया तस्य समीपस्थो दृष्टो भूयः सदागमः / पुनरप्यस्य सम्बन्धि ज्ञानमल्पं च शिक्षितम् // 783 // ततोऽहं श्रमणो जातो द्रव्यतस्तत्प्रभावतः / महर्धिय॑न्तरो देवो जातोऽहं विबुधालये // 784 // विस्मृतत्वेन नो नीतो मया तत्र सदागमः / पुनश्च मानवावासे गतेन प्रविलोकितः // 785 // इत्थं चानन्तशः कालमनन्तं भ्रमता भवे / मया सदागमो दृष्टो विस्मृतश्च पुनः पुनः // 786 // विस्मृतेऽस्मिन् मया भ्रान्तं भवचक्र निरन्तरम् | द्रव्यश्राद्धयतित्वेन पुनः प्राप्तः कथश्चन // 787 // क्वचिद् दीर्घा कचिद् हस्वा भ्रमतो भवचक्रके / जाता कर्मस्थितिर्जाताः कचिद् मे प्रबला द्विषः // 788 // . कचित् सदागमो जातः प्रबलस्तन्निवारकः / इत्थं चानन्तकालीनो(लिको)ऽभ्यासो जातः सदागमे // 789 // ततश्च निर्मलां दृष्ट्वा चित्तवृत्तिमहाटवीम् / सद्बोधमवदत् सम्यग्दर्शनाख्यो महत्तमः // 790 // आर्य ! विज्ञप्यतां देवः प्रस्तावो गमनस्य मे / पार्थे संसारीजीवस्य त्वदुक्तो वर्ततेऽधुना // 791 // 1. महादुःखेन // 2. साधुर्मयोद्याने दिदेश सः / धर्म तदा तदभ्यर्णे भूयो // 3. स्थितो सुरकुमारत्वे सा॥ 1. भुञ्जानो विस्मृत्यैव सदागमम् // 780 // भा॥