________________ ग्लो० 288-344] वैराग्यरतिः। 173 विलसामो वरैभौगैविंचरामो निजेच्छया / उल्लासयामः स्वां कीर्ति जन्मसारमवाप्नुमः // 316 // काचादिकूटरत्नानां वनादेः कौतुकस्य च / तदिदं पुरतश्चारोहितज्ञस्य निवेदनम् // 317 // ततो वदन्ति मुनयो भव्यमिथ्यादृशः प्रति / सत्यमात्मधिया धर्म यूयं कुरुथ सादराः // 318 / / विशेषं वित्थ नो किन्तु विप्रलब्धाः कुतीथिकैः / स्नानादीनि हि हिंस्राणि यान्ति नो धर्महेतुताम् / / 319 // यत्पुनथ जनुषो वयं सारं लभामहे / हास्यं विवेकिलोकानां तद्युष्माकं विजृम्भितम् // 320 // काये सन्निहितापाये रोगोघे परिवल्गति / जरायां त्वरमाणायां वियोगे चित्तदाहिनि // 321 // प्रत्यवस्थातरि यमे शीर्यमाणे शरीरके / गत्वरे यौवनेऽयोगविप्रिये प्रियसङ्गमे // 322 // पुद्गलस्कन्धसम्बन्धतुच्छेषु विषयेषु यः / नृणां सुखविपर्यासो विभ्रमः स हि कर्मजः 323 // अनन्तभवसन्तानहेतुरेष ततोऽनघाः / प्राप्तायां धर्मसामग्यामस्मासूपदिशत्सु च // 324 // ज्ञान-श्रद्धा-क्रियायत्ते मोक्षलाभे स्ववञ्चनम् / कर्तुं न युक्तं भवतामीदृशैर्मोहचेष्टितैः // 325 / / तेदाकर्ण्य मुनेर्वाक्यं भद्रकाः शुद्धवासनाः / सद्धर्मोपार्जनोपायं पृच्छन्ति विनयान्विताः // 326 // ग्राहयन्ति ततस्तेषां साधवस्तं महाशयाः / यदेतैः स्याद् गुणैरादौ धर्मसाधनयोग्यता // 327|| सेव्या दयालुता कोपो मोक्तव्यः खलसङ्गमः / त्याज्यो गुणानुरागश्चाभ्यसनीयो निरन्तरम् // 328 // अब्रह्मासत्य-गर्वाणां त्यागः कार्यः प्रयत्नतः / मान्याश्च देवगुरवः सत्कर्त्तव्यः परिच्छदः // 329 // पूरणीयाः प्रणयिनोऽनुविधेयः सुहृद्गणः / परनिन्दा न कर्त्तव्या ग्राह्याः परगुणाः सदा // 330 // सम्भाष्याः प्रथमं शिष्टाः स्वगुणानां विकत्थने / लज्जनीयमणीयोऽपि स्मार्य परकृतं हितम् // 331 // भाव्यं सुवेषचरितैरनुमोद्याश्च धार्मिकाः / 'यतितव्यं परार्थे च योग्यतैवं भविष्यति // 332 // योगोऽकल्याणमित्राणां सन्त्याज्यो गृहिभिस्ततः / कल्याणमित्रसेवा च कार्या पाल्योचितस्थितिः // 333 // .: अपेक्षितव्यों लोकाध्वा मान्या च गुरुसंहतिः / एतत्तन्त्रैः सदा भाव्यं धार्या दानादिवासना // 334 // सारपूजाऽर्हतां कार्या निरूप्या साधुशुद्धता / श्रोतव्यं विधिना धर्मशास्त्रं निभृतभावनम् // 335 // अनुष्ठेयस्तदर्थश्चावष्टब्धव्या च धीरता / पोलोच्याऽऽयतिर्भाव्यं परलोकाविरोधिभिः // 336 // सेव्यो गुरुजनः कार्य सद्योगपददर्शनम् / तद्रूपादि हृदि स्थाप्यं धर्तव्या चारुधारणा // 33 // विक्षेपमार्गो हातव्यः सोत्साहैयोगसिद्धये / अर्हद्विम्बादि सम्पाद्यं लेखनीयो जिनागमः // 338 // कर्तव्यो मगलजपश्चतुःशरणसंयुतः / अनुमोद्यं च सुकृतं निन्द्या दुष्कृतसन्ततिः // 339 // श्रुतौ सच्चेष्टितं धार्य पूज्याः सन्मन्त्रदेवताः / उदारैरुत्तमज्ञाने वर्तितव्यमशङ्कितैः // 340 // ततो वो भविता शुद्धसाधुधर्मस्य योग्यता / ततः कृतगृहत्यागैः कार्यः शिक्षाग्रहोगमः // 341 // विधेया तत्वांजज्ञासा स्वपरागमवेदिना / गुरुणा सह सम्बन्धात् कार्यस्तद्विनयो दृढम् // 342 // भवितव्यं विधिपरैर्मण्डल्यादिप्रयत्नतः / ज्येष्ठक्रमः पालनीयो भञ्जनीया न सत्क्रिया // 343 // सन्त्याज्यो विकथाक्षेपो धार्या शुद्धोपयोगता / शिक्षणीयः श्रुतिविधिर्भाव्यं सत्प्रत्ययस्थिरैः // 344 // 1. साधुवावयं तदाकर्ण्य भद्र // 2. कार्यः परार्थः सद्धर्म 3. निरूप्यं साधुलक्षणम् / श्रो // 4. 'ता बिहाय संगं ग्रहणशिक्षा सेव्योचिता ततः // 31 // वि //