________________ 110 महोपाध्यायश्रीयशोविनवगणिविरचिता [चतुर्थः सर्गः सम-संवेग-निवेद-कृपा-ऽऽस्तिक्यैर्युतं जनम् / मैत्री-त्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थ्यैश्च करोत्ययम् // 1345 // प्रस्थानेऽभिनिवेशोऽस्य मुक्तौ प्रतिजनं महान् / सदोल्लसत्यविश्रान्तदेशनाडिण्डिमध्वनिः // 1346 // चन्द्रोज्ज्वलरुचियफा दृश्यते च मनोहरा / सुदृष्टिनाम्नीमस्यैव पत्नी तां विद्धि विश्रुताम् // 1347 // इयं हि विधिनाऽऽराद्धा चित्तस्थैर्यकरी नृणाम् / अविद्याजनिता भावाः क्षीयन्तेऽस्याः प्रभावतः // 1348 // यः कुदृष्टयाऽन्वितः प्रोक्तो मिथ्यादर्शननामकः / विरुद्धं चेष्टितं सर्वं ततोऽस्य प्रमदाजुषः // 1349 // महत्तमो मोहबले मिथ्यादर्शननामकः / यथा चारित्रधर्मस्य तथाऽसौ नृपतेर्बले // 1350 // क्षयेण प्रतिपक्षस्य प्रशमेनोभयेन वा ! त्रिरूपश्च भवत्येष स्वभावादेव शक्तिमान् // 1351 // यद्वा रूपत्रयं तस्य मन्त्री सद्बोधनामकः / कुरुतेऽयं हि जानीते भवद् भूतं च भावि च // 1352 // सूक्ष्मव्यवहितार्थेषु च्छन्नं नास्त्यस्य किञ्चन / अनन्तद्रव्यपर्यायं प्रेक्षतेऽसौ चराचरम् // 1353 // नीतीनां पारदृश्वाऽसौ राज्यकार्यविचिन्तकः क्त्सलो नरनाथस्य महत्तममनःप्रियः // 1354 // ज्ञानसंवरणस्याऽयं विपक्षो मन्त्रिपुङ्गवः / क्षयोपशमतस्तस्य क्षयाद वोभयरूपभाक् // 1355 // इयं चाऽवगतिर्नाम भार्याऽस्यैव समीपगा / प्रामाः स्वरूपं सर्वस्वं शरीराव्यतिरेकिणी // 1356 // . .. एते पञ्चाऽस्य श्यन्ते स्वागभूता वयस्यकाः / आयोऽत्राऽऽभिनिबोधोऽयमिन्द्रिया-निन्द्रियार्थवित् // 1357 // यस्यादेशे पुरं सर्व द्वितीयोऽयं सदागमः / सद्बोधो मन्त्रितां नीतो राज्ञाऽस्य मुखपाटवात् // 1358 // तृतीयोऽवधिनामाऽयं नानारूपं निरीक्षते / क्वचिद् दीर्ध कचिद् हस्वं कचित् स्तोकं कचिद् बहु / / 1359 // चतुर्थोऽन्यमनोग्राही मनःपर्यायनामकः / निर्वाणसार्थवाहोऽयं पञ्चमः केवलाभिधः // 1360 // प्रकर्षः प्राह सर्व मे त्वया मातुल ! दर्शितम् / नत्वद्यापि स सन्तोषो यत्रोत्कण्ठा परा मम // 1361 // विमर्शः प्राह सन्तोषः संयमस्याऽयमग्रगः / भृत्यश्चारित्रधर्मस्य सन्धि-विग्रहकृन्नयी // 1362 // नियुक्तस्तन्त्रपालत्वे निपुणो मूलभूभुजा / अनेन स्पर्शनादीनि जित्वा नीताः शिवं जनाः // 1363 // अस्योपरि समायाता महामोहादिभूभुजः / युध्यन्ते च सहानेन ज्ञात्वैनं मूलनायकम् // 1364 // चित्तवृत्तिमहाटव्यामेतेषां युद्धमस्य च / जायते क्रमिकोत्सर्पन् मिथो जयपराजयम् // 1365 // मया प्रदर्शितस्तुभ्यमेष सन्तोषतन्त्रपः / भार्याऽस्य दृश्यते रम्या नाम्नेयं निष्पिपासता // 1366 // लाभालाभे सुखे दुःखे सन्तोषं जनयत्यसौ / विषयेषु च सर्वेषु निस्तृष्णं कुरुते जनम् // 1367|| एते चारित्रधर्मस्य प्रोक्ताः स्वाङ्गिकबान्धवाः / ये त्वेते वेदिकाभ्यणे दृश्यन्ते मण्डपस्थिताः // 1368 // शुभाशयादयोऽस्यैव तेऽसङ्ख्याताः पदातयः / कार्याणि सुन्दराण्यस्याज्ञया ते कुर्वते जने // 1369 // वर्णितं सर्वमास्थानं तदिदं ते समासतः / पूर्णोत्कण्ठोऽसि यदि तद् गच्छावो द्वारि साम्प्रतम् // 1370 // एवमस्त्विति तेनोक्ते ताभ्यां निर्गत्य वीक्षितम् / चतुरङ्गं बलं शौर्य-गाम्भीर्यादिरथोद्धतम् // 1371 // यशः-प्रश्रय-सौजन्य-धैर्यादिगजगर्जितैः / नैपुण्य-वाग्मिता-मेधोल्लासादिहयहेषितैः // 1372 // मनस्विभाव-दाक्षिण्य-स्थिरत्वादिपदातिभिः / मनोहरं लसल्लेश्यारक्त-पीत-सितध्वजैः // 1373 // प्रकर्षो मुदितो दृष्ट्वा तदुवाच स्क्मातुलम् / द्रष्टव्यं दर्शितं सर्व पूर्णोत्कण्ठा त्वया मम // 1374 / /