________________ 68 महोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिविरचितां चतुर्थः सर्गः तत् तादृग् विस्मितः प्रेक्ष्य प्रकर्षः प्राह मातुलम् / नायकोऽस्ति किमत्राऽस्ति नैवास्तीत्यब्रवीदसौ // 333 // ताभ्यामत्रान्तरे दृष्टः प्रविविक्षुः पुरं पुरः / शोकाख्यः प्रातिपथिकः शोका-ऽऽक्रन्दादिसंयुतः // 334 // ताभ्यां सम्भाषितश्चायं भद्रास्मिन् कः पुरे नृपः / / शोकः प्राहाऽस्य नन्वीशः ख्यात एव जगत्त्रये // 335 // रागकेसरिणो भ्राता महामोहनृपात्मजः / भर्ताऽविवेकितायाश्च नृपोऽसौ महसां निधिः // 336 // दृष्टिर्भूभङ्गुरा यस्यां पतत्यस्य तडिन्निभा / दूराद् देवा अपि त्रस्ताः कुर्वन्त्यस्यै दिशे नमः // 337 // ज्वलनेऽपि पतन्त्यस्य प्रतापमसहिष्णवः / विशन्त्यपि वने मूर्च्छत्पश्चाननघनध्वनौ // 338 // विक्रमाक्रान्तभुवनो मार्तण्डातुलतेजसः / प्रष्टव्यःस्यात् कथं ? द्वेषगजेन्द्रोऽसौ महाबलः // 339 // आस्तां देवः परं विश्वं या मोहयति तत्क्षणात् / ख्याताऽविवेकिताऽप्यत्र सा देवी शक्तिभाजनम् // 340 // महामोहस्य निर्देशं सा नात्येति कदाचन / सा महामूढताज्ञायां वर्तते सर्वदा वधूः // 341 // रागकेसरिनिर्देशाद् दूरे सा नैव तिष्ठति / मूढतायाश्च तत्पन्या प्रीतिं सा वर्धयत्यलम् // 342 // भर्तुर्रेषगजेन्द्रस्य साऽनुवृत्तिपरायणा / इत्थं गुणैर्गता ख्यातिं त्रैलोक्येऽप्यविवेकिता // 343 // .. ख्यातावेतौ न किं ज्ञातौ त्वया देवी नरेश्वरौ ? / विमर्शः प्राह पथिकावावां दूरादिहागतौ // 344 // दृष्टं पुरं पुरा नेदं श्रुतौ देवी-नृपौ भृशम् / किं स्याद् द्वेषगजेन्द्रोऽत्राऽन्यत्र वेति तु पृच्छ्य ते // 345 // शोकः प्राह जगत्येव वार्ता छन्नेयमस्ति न / निर्गतो यन्महामोहः सन्तोषजयकाम्यया // 346 // . पार्श्वे द्वेषगजेन्द्रोऽपि रागकेसरिसंयुतः / तस्याऽस्ति सर्वसैन्यं च भूयान् कालोऽत्र लचितः // 347 // विमर्शः प्राह यद्येवं ततस्त्वं किमिहागतः ? / किं साऽविवेकिताऽस्त्यत्र ? तत्सुखप्रश्नगोचरः // 348 // शोकः प्राह पुरेऽत्रास्ति नाधुना साऽविवेकिता / नापि देवस्य पार्श्वे च तत्राऽऽकर्णय कारणम् / / 349 // देवे प्रचलिते दुष्टसन्तोषवधकाम्यया / देव्यपि प्रस्थिता साघु भत्तचित्तानुयायिनी // 350 // ततो द्वेषगजेन्द्रेण प्रोक्ता सा त्वच्छरीरकम् / स्कन्धावारक्षमं गर्भभरेण नं विभाव्यते // 351 // तस्मादत्रैव तिष्ठ त्वं रणरङ्गे व्रजाम्यहम् / तयोक्तं न पुरेऽत्रैव त्वां विना स्थातुमुत्सहे // 352 // प्रत्युक्ता सा पुनर्देर्दृढस्नेहाऽसि यद्यपि / तथापि तव नो युक्तं स्कन्धावारे प्रवर्तनम् // 353 / / किन्तु रौद्रपुरे दुष्टाशयेन परिरक्षिता / तिष्ठ चिन्तोज्झिता गत्वा स हि मे सेवकोत्तमः // 354 // निर्बन्धं प्रबलं पत्युः पराकर्तुमथाक्षमा / रौद्रचित्तपुरे देवी देवादेशेन सा गता // 355 // वहिरङ्गपुरेष्वद्य वर्तते सा कथश्चन / प्राक् तयैकः सुतो जातः श्रूयतेऽन्योऽपि चाधुना // 356 // तदेवं नात्र सा देवी वर्तते यत्तु कारणम् / ममात्राऽऽगमने भद्र ! तदाकर्णय साम्प्रतम् // 357 // प्रतिष्ठमान एवेदं मतिमोहं प्रभुर्जगौ / न त्वयेदं पुरं त्याज्यं त्वमेतदक्षणक्षमः // 358 // स देवाज्ञां समासाद्य स्थितोऽत्रैव पुरे पुरा / आगतोऽहं चिरात् तस्य मित्रस्याहं दिदृक्षया / / 359 // मैयाऽटव्यां स्थितं मुक्तं मया देवस्य साधनम् / एतदुक्त्वा गतः शोको नगरे स्वार्थसिद्धये // 360 // 1. प्रातिहारिकः // 334 // 2. वनो भानुजैत्रप्रतापवान् / प्र // 339 // 3. पुरेऽत्राहं त्वां // 352 // 4. कुतोऽपि बहिरङ्गेषु सा पुरेम्वस्ति साम्प्रतम / प्राक //