________________ 362 ] उत्पद्यन्तेऽनुसमयं जीवा नारकिकादयः // 1329 // एवमुत्पद्यमानास्ते जन्तवो भुवनत्रये / कथं भवन्ति चेदन्या गतिः कापि भवेन हि // 1330 // पुनः पप्रच्छ भगवन् किं तत्त्वमिति राड् यतेः / विगमस्तत्वमित्याख्यत्तस्मै च त्रिजगद्गुरुः // 1331 // पुनः स दध्यौ च सर्वविगमे शून्यता भवेत् / किं तत्त्वमिति भूयोऽपि ततः पप्रच्छ तीर्थपम् // 1332 // स्थितिस्तत्त्वमिति पुनर्जिनेन कथिते सति / / जीवस्वरूपमखिलं ततो विज्ञातवानसौ // 1333 // त्रिपद्या अनुसारेण द्वादशाङ्गानि स क्षणात् / विदधे गाढप्रज्ञावानेवमन्येऽपि तेऽखिलाः // 1334 // द्वादशाङ्गी विधायागुस्ते सर्वे जिनसन्निधौ / तद्विज्ञायासनवरादुत्तस्थौ भगवानपि // 133 // अत्रान्तरे सहस्राक्षः स्थालं सद्गन्धपूरितम् / समादाय पुरस्तस्थौ शान्तिनाथजिनेशितुः // 1336 // गन्धान् समस्तसङ्घस्यार्पयामास जिनेश्वरः / प्रदक्षिणात्रयं ते च ददिरे परितः प्रभुम् // 1337 / / गन्धास्तदुत्तमाङ्गेषु ससङ्घोऽपि जिनोऽक्षिपत् / तेषां गणधरपदस्थापन विनिर्मिता // 1338 // दीक्षिता जिननाथेन बहवः पुरुषाः खियः / साधुसाध्वीपरीवारस्ततोऽस्य समजायत // 1339 // यतिधर्मासमर्था ये पुरुषा महिलास्तथा / श्रावका श्राविकाश्चापि जज्ञिरे ते जिनान्तिके // 1340 // एवं चतुर्विधः सङ्घः समुत्पन्नो जगद्गुरोः / आद्य समवसरणे शरणे भव्यदेहिनाम् // 1341 // पौरुष्यन्ते समुत्थाय विशश्राम जिनेश्वरः / गत्वा द्वितीयप्राकारमध्यस्थे देवछन्दके // 1342 //