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________________ प्रस्तावना वर्णन करते हुए द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक नय को 'संग्रहाद्यात्मक' ही बतलाया है। तथा उसी के बाद अर्थनयों में जो सप्तविध वचनमार्ग और शब्दनय में द्विविध वचनमार्ग बतलाया है वह भी सन्मतितर्क का ही अनुकरण करते हुए लिखा है। लघीयत्रय में तो सन्मतितर्क की तीसरी गाथा की संस्कृतछाया मूल में सम्मिलित कर ली गई है। इस प्रकार सिद्धसेन के सन्मतितर्क का अकलंक के प्रकरणों पर खूब प्रभाव पड़ा है। किन्तु सन्मति में प्रतिपादित केवलज्ञान और केवलदर्शन के अभेदवाद की चर्चा का अकलङ्क ने अनुसरण नहीं किया। लघीयत्रय के तीन प्रवेश सन्मतितर्क के तीन काण्डों का स्मरण कराते हैं / सिद्धसेन की एक द्वात्रिंशतिका से भी अकलंक ने एक पद्य उद्धृत किया है। ____ श्रीदत्त और अकलङ्क-अकलङ्क से पहले श्रीदत्त नाम के एक तार्किक विद्वान हो गये हैं। आचार्य देवनन्दि ने अपने व्याकरण में उनका उल्लेख किया है। आचार्य विद्यानन्द के उल्लेख से प्रकट होता है कि श्रीदत्त त्रेसठ वादियों के विजेता थे और उन्होंने 'जल्पनिर्णय' नाम का कोई महत्त्वशाली ग्रन्थ रचा था। अकलंक के 'सिद्धिविनिश्चय' नामक ग्रन्थ में भी 'जल्पसिद्धि' नाम से एक प्रकरण है और उसमें वाद और जल्प को एक ही बताया है। संभव है जल्पसिद्धि पर 'जल्पनिर्णय' का प्रभाव हो। ग्रन्थ उपलब्ध न होने से इसके सम्बन्ध में कुछ विशेष नहीं कहा जा सकता। ___ पूज्यपाद और अकलङ्क-पूज्यपाद देवनन्दि की सर्वार्थसिद्धि नामक वृत्ति को अन्तर्भूत करके अकलंक ने अपने तत्त्वार्थवार्तिक नामक ग्रन्थ की रचना की है और उसकी बहुत सी पंक्तियों को अपनी वार्तिक बना लिया है। तथा शब्दों की सिद्धि करते हुए, पूज्यपाद के जैनेन्द्रव्याकरण से अनेक सूत्र उद्धृत किये हैं। जिससे पता चलता है कि वे जैनेन्द्रव्याकरण के अच्छे अभ्यासी थे और उसपर उनकी बड़ी आस्था थी। -- 'पात्रकेसरी और अकलङ्क-अकलङ्क से पहले पात्रकेसरी नाम के एक प्रसिद्ध जैनाचार्य हो गये हैं। उन्हें पात्रस्वामी भी कहते थे। उन्होंने 'त्रिलक्षणकदर्थन' नाम का एक शास्त्र रचा था। हम पहले कह आये हैं कि बौद्ध आचार्य हेतु का लक्षण त्रैरूप्य मानते हैं / आचार्य वसुबन्धु ने यद्यपि त्रैरूप्य का निर्देश किया था किन्तु उसका विकास दिङ्नाग ने ही किया है। इसी से वाचस्पति उसे दिङनाग का सिद्धान्त बतलाते हैं। इसी त्रैरूप्य या त्रिलक्षण का कदर्थन करने के लिये पात्रकेसरी ने उक्त शास्त्र की रचना की थी। अतः पात्रकेसरी, दिङ्नाग ( ईसा की पाँचवीं शताब्दी ) के बाद के विद्वान् थे। त्रिलक्षण का कदर्थन करनेवाला उनका निम्नलिखित श्लोक बहुत प्रसिद्ध है “अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् / नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् // " शान्तरक्षित ने अपने तत्त्वसंग्रह के 'अनुमानपरीक्षा' नामक प्रकरण में पात्रस्वामी के मत की आलोचना करते हुए कुछ कारिकाएं पूर्वपक्षरूप से दी हैं। उनमें उक्त श्लोक भी है और 5 का० 1, गा० 41 / 2 कारिका 66-67 की विवृति / 3 राजवार्तिक पृ० 295 / 4 जैनेन्द्रन्याकरण, 1-4-34 / 5 "द्विप्रकारं जगौ जल्पं तत्त्वप्रातिभगोचरम् / त्रिषष्ठेवादिना जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये // 45 // " तश्लो० वा० पृ० 280 / 10
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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