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________________ न्यायकुमुदचन्द्र को 'स्याद्वाद' शब्द से अभिहित किया है। लघीयत्रय में अकलंक ने भी उसी का अनुसरण करते हुए श्रुत के दो उपयोग बतलाये हैं एक स्याद्वाद और दूसरा नय। हम पहले बतला आये हैं कि समन्तभद्र के द्वारा स्थिर की गई स्याद्वाद और सप्तभंगीवाद की रूपरेखा इतनी परिष्कृत थी कि अकलंक को जैनन्याय के इस अंग में परिवर्तन और विशेष परिवर्द्धन की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई और उसे उन्होंने ज्यों का त्यों अपना लिया। इसके सिवा समन्तभद्र के कथनों के आधार पर उन्होंने न्यायशास्त्र के कई आवश्यक अंगों की स्थापना की। यथा, आप्तमीमांसा में समन्तभद्र ने जिनोक्त तत्त्व को प्रमाण से अबाधित बतलाकर एकान्तवादियों के द्वारा उपदिष्ट तत्त्व को प्रमाणबाधित लिखा है। इस पर आशका की गई कि दोनों बातों को कहने की क्या आवश्यकता थी ? जिनोक्त तत्त्व को प्रमाण से अबाधित कह देने से ही 'इतरोक्त तत्त्व प्रमाण से बाधित हैं' यह स्पष्ट हो जाता है। इसका समाधान करते हुए अकलंकदेव ने वादन्याय के स्वरूप का निर्धारण किया और बतलाया कि विजिगीषु को स्वपक्ष का साधन और परपक्ष का दूषण दोनों करना चाहिये। इसी लिये स्वामी समन्तभद्र ने दोनों बातों का निर्देश किया है। सारांश यह है कि जैसे अपने प्रमाणशास्त्रों का प्रणयन करते हुए अकलंक ने उमास्वाति के दृष्टिकोण का ध्यान रखा और द्रव्यानुयोग की चर्चा में कुन्दकुन्द का अनुसरण किया, उसी तरह जैनन्याय की रूपरेखा के निर्धारण में उन्होंने समन्तभद्र की उक्तियों का अनुशीलन किया। सिद्धसेनदिवाकर और अकलंक-यद्यपि सिद्धसेन का न्यायावतार जैनन्याय का आद्यग्रन्थ माना जाता है फिर भी अकलंक के प्रकरणों पर उसका कोई प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता / किन्तु उनके ख्यातग्रन्थ सन्मतितर्क का हम उनपर पर्याप्त प्रभाव देखते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द और उमास्वाति ने गुण को पर्याय से जुदा मानकर द्रव्य का लक्षण 'गुणपर्ययवत्' किया था। किन्तु सिद्धसेन दिवाकर ने शास्त्रीय युक्तियों के आधार पर यह प्रमाणित किया कि गुण और पर्याय ये दो जुदी जुदी वस्तुएँ नहीं हैं किन्तु दोनों एक ही अर्थ के बोधक हैं। द्रव्य और पर्याय की तरह यदि गुण भी कोई स्वतंत्र वस्तु होती तो उसके लिये गुणार्थिक नाम का तीसरा नय भी होना आवश्यक था। 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम् ' सूत्र की व्याख्या करते हुए अर्कलंक ने सिद्धसेन के इस मत का पूर्वपक्षरूप से निर्देश किया है और प्रारम्भ में उसका समाधान करते हुए, शास्त्र तथा युक्तियों के आधार पर, गुण का पृथक् अस्तित्व स्वीकार किया है किन्तु अन्त में 'गुणा एव पर्यायाः' निर्देश करके गुण और पर्याय का अभेद स्वीकार कर लिया है। गुण और पर्याय के अभेदवाद के सिद्धान्त की तरह आचार्य सिद्धसेन ने नयों में भी एक नवीन परिपाटी को स्थान दिया था। प्राचीन परम्परा के अनुसार नय सात हैं किन्तु सिद्धसेन ने नैगमनय को संग्रह और व्यवहार में सम्मिलित करके घड्नयवाद की स्थापना की थी। अकलंकदेव ने सिद्धसेन का अनुकरण करते हुए नयप्रवेश में संग्रह नय का पहले निरूपण किया है किन्तु वाद में नैगम का भी वर्णन कर दिया है। राजेवार्तिक में भी सप्तभंगी का 1 स्याद्वादकेवलज्ञाने // 105 // आ० मी० / 2 उपयोगौ श्रुतस्य द्वौ स्याद्वादनयसंज्ञितौ // 62 // 3 कारिका 6-7 / 4 अष्टश., अष्टसहस्रो पृ० 81 / 5 प्रवचनसार अ. 2, गा• 3 / 6 तत्त्वार्थसूत्र 5-37 / * सन्मतितर्क, काण्ड 3, गा० 8-15 / 8 राजवार्तिक पृ. 243 / 9 सन्मति• कांड 1, गा. 4 / 1. पृष्ठ 186 /
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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