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________________ न्यायकुमुदचन्द्र तथा उसकी रचना में उसके समकालीन तथा पूर्वकालीन विचारों का कहाँ तक हाथ रहता है ? अतः जैन तथा जैनेतर आचार्यों के साथ अकलंक के साहित्यिक सम्बन्ध की समीक्षा क्रमशः की जाती है। __ अकलंक और जैनाचार्य __ कुन्दकुन्द और अकलंक-कुन्दकुन्द सैद्धान्तिक थे और उनके समय में तर्कशैली का विकास भी न हो सका था। किन्तु अपने प्रवचनसार नामक ग्रन्थ में उन्होंने द्रव्यानुयोग का बड़ा ही रोचक वर्णन किया है और उसमें उनकी तार्किक प्रतिभा झलकती है। अकलंकदेव ने अपने राजवार्तिक और अष्टशती में द्रव्य, गुण, पर्याय और उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य की जो चर्चा की है वह कुन्दकुन्द का ही अनुसरण करते हुए की है। कुन्दकुन्द लिखते हैं-"द्रव्य ही सत्ता है, सत् और द्रव्य दो पृथक् पृथक् वस्तुएँ नहीं हैं।" इसी बात को प्रकारान्तर से दोहराते हुए अकलंक भी कहते हैं-"द्रव्य क्षेत्र काल और भाव सत्ता के ही विशेष हैं, सत्ता ही द्रव्य है, सत्ता ही क्षेत्र है, सत्ता ही काल है और सत्ता ही भाव है.।" कुन्दकुन्द लिखते हैं"उत्पाद व्यय और ध्रौव्य पर्यायों में होते हैं और पर्याय द्रव्यस्वरूप हैं अतः द्रव्य ही उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक है।" इस सीधीसी बात को तार्किकदृष्टि से पल्लवित करते हुए अकलंक लिखते हैं-"उत्पित्सु ही नष्ट होता है, नश्वर ही स्थिर रहता है और स्थिर ही उत्पन्न होता है / और यतः द्रव्य और पर्यायें अभिन्न हैं अतः-स्थिति ही उत्पन्न होती है, विनाश ही स्थिर रहता है, और उत्पत्ति ही नष्ट होती है / " अष्टशती की व्याख्या करते हुए विद्यानन्द ने इस प्रकरण में 'तथाचोक्तं' करके कुन्दकुन्द के पञ्चास्तिकाय के एक गाथा की संस्कृत छाया उद्धृत की है। इससे प्रतीत होता है कि विद्यानन्द भी अकलंकदेव को उक्त विवेचन के लिये कुन्दकुन्द का ऋणी समझते थे / अतः अकलंक कुन्दकुन्द के अनुयायी थे और उनके ग्रन्थों का उनपर अच्छा प्रभाव था। ___उमास्वाति और अकलंक-दिगम्बरसमाज में आचार्य उमास्वाति, उमास्वामी नाम से भी प्रसिद्ध हैं / इन्होंने सबसे पहले जैनवाङ्मय को सूत्ररूप में निबद्ध करके तत्वार्थसूत्र की रचना की थी। वर्तमान में इस सूत्रग्रन्थ के दो पाठ पाये जाते हैं। एक पाठ दिगम्बर सूत्रपाठ कहलाता है और दूसरा श्वेताम्वर / दिगम्बर सूत्रपाठ के ऊपर अकलंकदेव ने अपने तत्त्वार्थराजवार्तिक नामक वृहद् ग्रन्थ की रचना की है। इस ग्रन्थ में उन्होंने स्थान स्थान पर श्वेताम्बर सूत्रपाठ की आलोचना भी की है। अकलंकदेव ने उमास्वाति के द्वारा निर्दिष्ट प्रमाणपद्धति का कितना और कैसा अनुसरण किया है यह हम पहले बतला आये हैं। उनके प्रमाणविषयक प्रकरणों का आधार 'तत्प्रमाणे ' सूत्र है और 'प्रमाण इति संग्रह' लिखकर प्रत्येक प्रकरण में उन्होंने उक्त सूत्र का निर्देश किया है। 1 "तम्हा दव्वं सयं सत्ता // " 2-13 // प्रवचनसार 2 "सत्तैव विशिष्यते द्रव्यक्षेत्रकालभावात्मना / " अष्टशती, अष्टस० पृ० 113 / 3 "उप्पादढिदिभंगा विज्जते पज्जएसु, पज्जाया / दव्वं हि संति णियदं तम्हा दव्वं हवदि सत्तं // // 2-9 // प्रवच० 4 "उत्पित्सुरेव विनश्यति, नश्वर एव तिष्ठति, स्थास्तुरेवोत्पद्यते / " अष्टश० अष्टस० पृ. 112 / 5 "स्थितिरेवोत्पद्यते, विनाश एव तिष्ठति, उत्पत्तिरेव नश्यति / " अष्टश०, अष्टस० पृ० 112 6 अष्टसहस्री पृ० 113 / 7 गा० 8 /
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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