SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना है क्योंकि उसके चार अङ्ग होते हैं-वादी, प्रतिवादी, सभ्य और सभापति / अकलंकदेव ने सभापति के स्थान में राजा को वाद का अङ्ग माना है। इससे यही आशय व्यक्त होता है कि अध्यक्ष के आसन पर शक्तिशाली शास्त्रज्ञ पुरुष स्थित होना चाहिये जो वादी और प्रतिवादीको असद् उपायों का अवलम्बन करने से रोक सके। ___ जल्प और वाद को एक मान लेने से केवल एक वितण्डा ही शेष रह जाता है। वितण्डाकथा में वादी और प्रतिवादी अपने अपने अपने पक्ष का समर्थन न करके केवल प्रतिपक्षी का खण्डन करने में ही लगे रहते हैं। अतः अककङ्क ने उसे वादोभास कहा है। क्योंकि वाद में स्वपक्षस्थापन और परपक्ष-दूषण, दोनों का होना आवश्यक है। __वाद में सबसे मुख्य प्रश्न जय और पराजय की व्यवस्था का है। प्रतिपक्षी को निगृहीत करने के लिये न्यायदर्शन में 22 निग्रहस्थानों की व्यवस्था की गई है। और धर्मकीर्ति ने वादी और प्रतिवादी के लिये एक एक निग्रहस्थान आवश्यक माना है। यदि वादी अपने पक्ष को सिद्धि करते हुए किसी ऐसे अङ्ग का प्रयोग कर जाये जो 'असाधनाङ्ग' माना गया है या साधनाङ्ग को न कहे तो वह निगृहीत हो जाता है। इसी प्रकार वादी के अनुमान में दूषण देते हुए यदि प्रतिवादी किसी दोष का उद्धावन न कर सके या अदोष का उद्धावन करे तो वह निगृहीत कर दिया जाता है। अकलंक ने धर्मकीर्ति का खण्डन करते हुए इस प्रकार के निग्रह को अनुचित बतलाया है। वे कहते हैं -“वाद का उद्देश्य तत्त्वनिर्णय है। यदि वादी अपने पक्ष का साधन करते हुए कुछ अधिक कह जाता है या प्रतिवादी अपने पक्ष की सिद्धि करके वादी के किसी दोष का उद्भावन नहीं कर सकता तो वे निगृहीत नहीं कहे जा सकते। कहावत प्रसिद्ध है-'स्वसाध्यं प्रसाध्य नृत्यतोऽपि दोषाभावात् / प्रमाण के बल से प्रतिपक्षी के अभिप्राय को निवृत्त कर देना ही सम्यक् निग्रह है / अतः जो वादी समीचीन युक्तिबल के द्वारा अपने पक्ष को सभ्यों के चित्त में अङ्कित कर देने में पटु है उसी को ही विजय मानना चाहिये, और जो चुप हो जाता है या अंट संट बोलता है वह पराजित समझा जाना चाहिए।" इस प्रकार स्वाधिगम और पराधिगम के निमित्तभत प्रमाणों की व्यवस्थापना करके अकलंकदेव ने जैन न्यायशास्त्र को सुव्यवस्थित और सुसम्बद्ध किया। इसके अतिरिक्त न्यायवैशेषिक, सांख्ययोग, मीमांसक, वैयाकरण और बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों पर सर्वप्रथम लेखनी चलाकर अपने उत्तराधिकारियों का मार्ग प्रशस्त किया। अकलंक और इतर आचार्य हम ऊपर बतला आये हैं कि अकलंक के पहले जैनन्याय की क्या रूपरेखा थी और उन्होंने उसमें किन किन सिद्धान्तों को सम्मिलित करके उसे पूर्ण और परिष्कृत बनाया था। तथा यह भी लिख आये हैं कि उत्तरवर्ती आचार्यों ने उनका अनुसरण किया है। इन बातों पर विशेष प्रकाश डालने के लिये पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती जैन तथा जैनेतर आचार्यों के साथ अकलंक के साहित्यिक सम्बन्ध की समीक्षा करना दर्शनशास्त्र के अभ्यासियों के लिये विशेष रुचिकर होगा और उससे वे जान सकेंगे कि साहित्य पर पूर्ववर्ती साहित्य का क्या और कैसा प्रभाव पड़ता है 1 सिद्धिविनि० टी० पृ. 256 उ०। 2 न्या. वि. 2-214 / 3 असाधनाङ्गवचन और अदोषोद्भावन के विविध अर्थो के लिये वादन्याय देखना चाहिये। 4 अष्टशती, अष्टस० पृ. 81 तथा न्या. वि. 2-207,9 /
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy