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________________ प्रस्तावना अकलंक के प्रमाणविषयक उक्त मन्तव्यों का सार संक्षेप में इस प्रकार है 1 प्रत्यक्ष तीन तरह का होता है इन्द्रियप्रत्यक्ष, अनिन्द्रियप्रत्यक्ष और अतीन्द्रियप्रत्यक्ष / इनमें प्रारम्भ के दो प्रत्यक्ष सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष हैं और अन्तिम पारमार्थिक।। 2 मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध ज्ञान यदि शब्द-असंसृष्ट हो तो सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष के भेद हैं और यदि शब्द-संसृष्ट हों तो परोक्ष श्रुतप्रमाण के भेद जानने चाहिये। 3 दूसरों के द्वारा माने गये अर्थापत्ति, अनुमान, आगम आदि प्रमाणों का अन्तर्भाव श्रुत प्रमाण में होता है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि स्मृति आदि प्रमाणों को अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष और श्रुतज्ञान को केवल शब्दसंसृष्ट कहने पर भी अकलंक को स्मृति आदि का परोक्षत्व और श्रुतज्ञान का अनक्षरत्व अभीष्ट था और उनके ग्रन्थों में इसका स्पष्ट आभास मिलता है। उत्तरवर्ती जैन नैयायिकों ने इन्द्रियजन्य ज्ञान को तो एक मत से सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष मानना स्वीकार किया, किन्तु स्मृति आदि को किसी ने भी अनिन्द्रियप्रत्यक्ष नहीं माना, और इस प्रकार अकलंक ने सूत्रकार के मत की रक्षा करने के लिये जो प्रयत्न किया था वह तो सफल न हो सका किन्तु उनकी शुद्ध तार्किक प्रमाणपद्धति को सब ने एक स्वर से अपनाया। परोक्षप्रमाण परोक्ष प्रमाणों में, नैयायिक के उपमान प्रमाण की आलोचना करते हुए, अकलंक ने प्रत्यभिज्ञान प्रमाण के एकत्व, सादृश्य, प्रतियोगी आदि अनेक भेदों का उपपादन किया। अविनाभावसम्बन्ध को व्याप्ति बतलाकर उसका साकल्येन ग्रहण करने के लिये तर्कप्रमाणे की आवश्यकता सिद्ध की। साध्य और साध्याभास का स्वरूप स्थिर किया। हेतु और हेत्वाभास की व्यवस्था की। बौद्ध दार्शनिक हेतु के केवल तीन ही भेद मानते हैं स्वभाव, कार्य और अनुपलब्धि, किन्तु अकलंक ने उनके अतिरिक्त कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर को भी हेतु स्वीकार किया. तथा बौद्धों की तरह अनुपलब्धि हेतु को केवल अभावसाधक न मानकर, उसे उभयसाधक माना। ___ हेत्वाभास और जाति का जो विवेचन अकलंक के प्रकरणों में मिलता है वह उससे पहले के किसी जैन ग्रन्थ में नहीं मिलता। किन्तु उसे अकलंक की देन नहीं कहा जा सकता, क्यों कि अकलंक ने उसे अपने पूर्वज पात्रकेसरि के 'त्रिलक्षणकदर्थन' से लिया है। किन्तु यतः वह ग्रन्थ आज अनुपलब्ध है अतः अकलंक के हेत्वाभास और जाति का भी संक्षेप में दिग्दर्शन करा देना अनुचित न होगा। हेत्वाभास नैयायिक हेतु के पाँच रूप मानता है-पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्व, विपक्षासत्व,' अबाधितविषय और असत्प्रतिपक्ष, अतः उसने पाँच हेत्वाभास माने हैं। बौद्ध हेतु को त्रैरूप्य मानता है अतः 1 लघीयत्रय का० 19, 21 की विवृति / 2 लघीयत्रय का० 11 / 3 न्या० वि० 2-3 / 4 न्या. वि० 2-173 / 5 लघी० का 14 / 6 इसके लिये देखो ‘पात्रकेसरि और अकलंक' शीर्षक स्तम्भ / 7 नैयायिक के हेत्वाभासों पर दिङ्नाग का प्रभाव जानने के लिये प्रो. चिरविट्स्की का बुद्धिस्ट लॉजिक दर्शनीय है।
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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