________________ न्यायकुमुदचन्द्र उसका समन्वय करने के लिये कोई प्रयत्न नहीं किया। पूज्यपाद देवनन्दि ने इस ओर ध्यान दिया और प्रमाण के स्वार्थ और परार्थ दो भेद करके श्रुतप्रमाण को उभयरूप बतलाया, अर्थात् ज्ञानात्मक श्रुतज्ञान को स्वार्थ और वचनात्मक को परार्थ कहा, किन्तु शेष मति आदि प्रमाणों को स्वार्थ ही बतलाया। अकलंकदेव ने आगमिक परम्परा और तार्किक पद्धति को दृष्टि में रखकर उक्त प्रश्न को दो प्रकार से सुलझाने का प्रयत्न किया / आगमिक परम्परा में तो उन्होंने पूज्यपाद का ही अनुसरण किया और श्रुतज्ञान के अनक्षरात्मक और अक्षरात्मक-दो भेद करके स्वार्थानुमान वगैरह का अन्तभाव अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान में और परार्थानुमान वगैरह का अन्तर्भाव अक्षरात्मक श्रुतज्ञान में किया। किन्तु तार्किक क्षेत्र में उन्हें अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करना पड़ा, क्योंकि श्रुतज्ञान का रूढ़ अर्थ तार्किक क्षेत्र में मान्य नहीं किया जा सकता था / सांख्य आदि दर्शनों में शाब्दप्रमाण या आगमप्रमाण के नाम से एक प्रमाण माना गया था और वह केवल शब्दजन्य ज्ञान से ही सम्बन्ध रखता था, और श्रुतप्रमाण से भी उसी अर्थ का बोध होता था क्योंकि श्रत का अर्थ 'सुना हुआ' होता है। अतः अकलंकदेव ने शब्दसंसृष्ट ज्ञान को श्रत और शब्द-असंसृष्ट ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष निर्धारित किया जैसा कि ऊपर बतलाया गया है। ___ लघीयत्रय में स्मृति संज्ञा चिन्ता और अभिनिबोध प्रमाणों का अनिन्द्रियप्रत्यक्ष में जो अन्तर्भाव किया गया है, उसके मूल में केवल एक ही दृष्टि प्रतीत होती है और वह दृष्टि है सूत्रकार का उन्हें मति से अनर्थान्तर बतलाना। सिद्धिविनिश्चय टीका के अवलोकन से भी यही प्रतीत होता है। अकलंक का मूल सिद्धिविनिश्चय और उसकी विवृति उपलब्ध होती तो इस सम्बन्ध में और भी विशेष प्रकाश डाला जा सकता था। किन्तु अकलंक के प्रमुख टीकाकार अनन्तवीर्य और विद्यानन्द को न तो स्मृति आदिक को अनिन्द्रियप्रत्यक्ष मानना ही अभीष्ट था और न वे परम्परा के विरुद्ध केवल शब्दसंसृष्ट ज्ञान को ही श्रुत मानने के लिये तैयार थे। विद्यानन्द ने अपनी प्रमाणपरीक्षा में अकलंक के मतानुसार प्रत्यक्ष के इन्द्रियप्रत्यक्ष, अनिन्द्रियप्रत्यक्ष और अतीन्द्रियप्रत्यक्ष भेद करके भी अवग्रहादि धारणापर्यन्त ज्ञान को एक देश स्पष्ट होने के कारण इन्द्रियप्रत्यक्ष और अनिन्द्रियप्रत्यक्ष माना है और शेष स्मृति आदि को परोक्ष ही माना है। तथा श्लोकवार्तिक में लघीयत्रय की उक्त कारिका के मन्तव्य की आलोचना भी की है और 'शब्दसंसृष्ट ज्ञान को ही श्रुत कहते हैं। इस परिभाषा की रचना में भर्तृहरि के शब्दाद्वैतवाद को कारण बतलाया है, क्यों कि भर्तृहरि के मत से कोई ज्ञान शब्दसंसर्ग के बिना नहीं हो सकता था अतः उसका निराकरण करने के लिये कहा गया है कि शब्दसंसर्गरहित ज्ञान मति है और शब्दसंसर्गसहित ज्ञान श्रुत है। अकलंक के दृष्टिकोण को स्पष्ट करने के लिये यहां यह भी बतला देना आवश्यक है कि उन्होंने प्रमाणों के स्वार्थ और परार्थ भेद को मानकर भी स्वतंत्र रूप से कहीं अनुमान के स्वार्थ और परार्थ भेद नहीं किये, क्योंकि उनके मत से केवल अनुमान प्रमाण ही परार्थ नहीं होता है बल्कि इतर प्रमाण भी परार्थ होते हैं और वे सब श्रुत कहे जाते हैं। १“श्रुतं पुनः स्वार्थ भवति परार्थ च, ज्ञानात्मकं स्वार्थ वचनात्मकं परार्थम् // " सर्वार्थ० पृ० 8 / 2 देखो, राजवातिक पृ० 54 / 3 " एवमनन्तरप्रस्तावद्वयेन अशब्दयोजनं स्मरणादिश्रुतं व्याख्यातम् / " सि० वि० टी०पृ० 253 पू०। 4 पृ०६८-६९। 5 देखो 'श्रुतं मतिपूर्वम् / सूत्र को व्याख्या।