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________________ प्रस्तावना लिये प्रयुक्त शब्दों को ही उनके लिये प्रयुक्त कर देते हैं, किन्तु अधिकतर वे अपने विपक्षी की किसी दार्शनिक भूल को पकड़कर ही उसका उपहास करते हैं। उनके उपहास के कुछ उदाहरण देखिये-अद्वैतवाद में साध्य और साधन के द्वैत के लिये भी स्थान नहीं है, किन्तु उसके बिना अद्वैतवाद का स्थापन नहीं किया जा सकता, अतः अद्वैतवादी योगाचारसम्प्रदाय का समर्थक धर्मकीर्ति उसे परिकल्पित कहता है। इस पर उपहास करते हुए अकलंक लिखते हैं "साध्यसाधनसंकल्पस्तत्त्वतो न निरूपितः / परमार्थावताराय कुतश्चित्परिकल्पितः // अनपायीति विद्वत्तामात्मन्याशंसमानकः। केनापि विप्रलब्धोऽयं हा कष्टमकृपालुना // " न्या० वि० "साध्य और साधन का समर्थन तात्त्विक नहीं है, परिकल्पित है / श्रोताओं के हृदय में परमार्थ अद्वैत का अवतार कराने के लिये उसकी कल्पना की गई है, क्योंकि उसके बिना परमार्थ की सिद्धि नहीं हो सकती। इस प्रकार अपने बुद्धिकौशल का प्रदर्शन करनेवाला धर्मकीर्ति अवश्य ही किसी निर्दयी के द्वारा ठगा गया है, हा, कष्ट !!!" और सुनिये___ धर्मकीर्ति ने अनेकान्तवादियों का उपहास करते हुए लिखा है-एक को अनेक और अनेक को एक कहना बड़ी ही विचित्र बात है। अकलंक उसका प्रत्युपहास करते हुए लिखते हैं “चित्रं तदेकामिति चेदिदं चित्रतरं ततः। चित्रं शून्यमिदं सर्व वेत्ति चित्रतमं ततः // " न्या० वि० "निस्सन्देह, एक को अनेक और अनेक को एक कहना एक विचित्र सिद्धान्त है किन्तु दृश्यमान इस विचित्र जगत को शून्य कहना उससे भी बढ़कर विचित्र सिद्धान्त है।" कितना सात्त्विक और युक्तिपूर्ण परिहास है। निरंशसंवेदनाद्वैतवादी कहते हैं कि हमारा अद्वैत तत्त्व न तो किसी से उत्पन्न होता है और न कुछ करता ही है। इस पर अकलंक कहते हैं “न जातो न भवत्येव न च किञ्चित् करोति सत् / तीक्ष्णं शौद्धोदनेः शृङ्गमिति किन प्रकल्प्यते // ' न्या० वि० "यदि आपका संवेदनाद्वैत न तो कभी उत्पन्न हुआ, न होता है और न कुछ कार्य ही करता है फिर भी वह है अवश्य / तो बुद्ध के मस्तक पर एक ऐसा तीक्ष्ण सींग भी क्यों नहीं मान लेते, जो न तो उत्पन्न होता है और न है।" ___संभवतः बौद्ध दार्शनिकों ने अपने ग्रन्थों में अपने विपक्षियों के लिये जड़, अलीक, पशु आदि शब्दों का प्रयोग किया है। जैनों के लिये 'अह्रीक' शब्द का प्रयोग तो एक रूढ़ शब्द बन गया है, क्योंकि उनके दिगम्बर सम्प्रदाय के साधु नग्न रहते हैं। अकलंकदेव ने इस प्रकार के शब्दों की व्याख्या कुछ दार्शनिक मन्तव्यों के आधार पर इस रीति से की है, कि वे शब्द प्रकारान्तर से उनके प्रबल विपक्षी बौद्ध पर ही लागू हो जाते हैं। जैसे, शून्याद्वैत, संवेदनाद्वैत आदि की कथा, परमाणुसञ्चयवाद, अपोहवाद, सन्तानवाद
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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