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________________ 36 न्यायकुमुदचन्द्र लोग वाद-विवाद में व्यस्त रहते हैं। वृद्ध हो अथवा युवा, शास्त्रार्थ के समय सब मिल जुलकर एक दूसरे की सहायता करते हैं। ... 'अन्य नगरों के विद्वान् लोग, जिनको शास्त्रार्थ में शीघ्र प्रसिद्ध होने की इच्छा होती है, झुंड के झुंड यहाँ आकर अपने संदेहों का निवारण करते हैं। ........ 'अगर दूसरे प्रान्तों के लोग शास्त्रार्थ करने की इच्छा से इस संघाराम में प्रवेश करना चाहें तो द्वारपाल उनसे कुछ कठिन कठिन प्रश्न करता है जिनको सुनकर ही कितने ही तो असमर्थ और निरुत्तर होकर लौट जाते हैं। उन विद्यार्थियों को, जो यहाँ पर नवागत होते हैं और जिनको अपनी योग्यता का परिचय कठिन शास्त्रार्थ के द्वारा देना होता है, उत्तीर्ण संख्या दस में 7 या 8 होती है।" - इस विवरण से अनुमान किया जा सकता है कि उस समय शास्त्रार्थों का कितना प्राबल्य था और उनमें भाग लेने के लिये किस श्रेणी की विद्वत्ता की आवश्यकता थी। अध्ययन समाप्त करने के बाद कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण होने पर अकलंकदेव को भी राजसभाओं में जाकर जिनशासन की विजयवैयजन्ती फहराने के सुअवसर मिले। स्वामी समन्तभद्र की तरह विभिन्न देशों को दिग्विजय करते हुए पर्यटन करने का उल्लेख तो उनके बारे में नहीं मिलता। किन्तु कुछ राजसभाओं में बौद्धों के साथ उनको मुठभेड़ होने का वर्णन पाया जाता है। तथा कई शिलालेख और ग्रन्थकार उन्हें बौद्धों का विजेता कहते हैं। _' कथाकोश में उनके एक शास्त्रार्थ का वर्णन इस प्रकार किया है-"कलिंगदेश में रत्नसंचयपुर नामका नगर था। वहाँ हिमशीतल राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम मदनसुन्दरी था। एक बार अष्टाह्निकापर्व के अवसर पर रानी ने जिनेन्द्रदेव की रथयात्रा निकालने का विचार किया। किन्तु बौद्धगुरु संघश्री ने राजा को बहकाकर रथयात्रा उत्सव बन्द करा दिया / और यह शर्त रखी गई कि यदि कोई जैन विद्वान् शास्त्रार्थ में बौद्धों को हरा सकेगा तो रथयात्रा का उत्सव मनाने दिया जायेगा / रानी ने कोई उपाय न देखकर, खाना-पीना त्याग कर जिन मन्दिर में ध्यान लगाया। आधी रात्रि के समय चक्रेश्वरी देवी का आसन डोला और उसने दिन निकलने पर अकलंकदेव के पधारने का सुसम्बाद सुनाया। अकलंकदेव आये और हिमशीतल राजा की सभा में शास्त्रार्थ आरम्भ हुआ। सभा के बीच में एक परदा पड़ा था और उसके अन्दर से संघश्री शास्त्रार्थ करता था। छह मास हो गये, किन्तु किसी की भी हार नहीं हुई / एक दिन रात्रि के समय अकलंक इसी उधेड़बुन में पड़े हुए थे कि चक्रेश्वरी देवी ने खबर दो कि परदे की ओट से बौद्धों की इष्टदेवी तारा शास्त्रार्थ करती है। उसने उन्हें सम्मति दी कि कल को वे देवी से प्रकारान्तर से प्रश्न करें। अगले दिन अकलंक ने वैसा ही किया तो उत्तर न मिला। आगे बढ़कर उन्होंने पर्दा खींच लिया और घड़े को ठोकर से फोड़ डाला। जैनधर्म की खूब प्रभावना हुई और बड़े ठाठबाट से जिनेन्द्रदेव की सवारी निकली।" राईस सा० के द्वारा सङ्कलित कथा में इस वाद के बारे में लिखा है-“अकलङ्कदेव ने दीक्षा लेकर सुधापुर के देशीयगण का आचार्यपद सुशोभित किया। इस समय अनेक मतों के विद्वान आचार्य बौद्धों से वादविवाद में हार खाकर दुःखी हो रहे थे / उनमें से वीरशैव सम्प्रदाय के आचार्य सुधापुर में अकलङ्कदेव के पास आये और उनसे उन्होंने सब हाल कहा। इस 1 कलचुरि वंशीय राजा विजल के मंत्री वसव ने वि० स० 1200 के लगभग वीरशैव सम्प्रदाय की स्थापना की थी। अतः अकलंक के समय में यह सम्प्रदाय नहीं हो सकता। यह कथालेखक की मनगढन्त है।
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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