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________________ 22 न्यायकुमुदचन्द्र जानकर यह आत्मा अपने सम्यग्दर्शन को विशुद्ध करता है और तपस्या के द्वारा कर्मों की निर्जरा करके मुक्तिसुख का अनुभवन करता है। विवृति में लिखा है कि श्रुतप्रमाण और उसके भेद नयों के द्वारा जाने गये द्रव्य और पर्यायों का सङ्करव्यतिकररहित कथन करने को निक्षेप कहते हैं। उसके चार भेद हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव / जाति, द्रव्य, गुण, और क्रिया की अपेक्षा न करके जो नामव्यवहार किया जाता है उसे नामनिक्षेप कहते हैं। किसी वस्तु में नामनिर्देशपूर्वक दूसरे की स्थापना करने को स्थापनानिक्षेप कहते हैं। भावि पर्याय की प्राप्ति के लिये अभिमुख वस्तु को द्रव्य कहते हैं। वह दो प्रकार का है-आगम और नोआगम / वर्तमानपर्यायविशिष्ट वस्तु को भावनिक्षेप कहते हैं। निक्षेप से अप्रस्तुत का निराकरण और प्रस्तुत का प्ररूपण किया जाता है, अतः निक्षेप उपयोगी है। अन्त में वैशेषिक सौगत और सांख्य के द्वारा माने गये मुक्तात्माओं के स्वरूप को दृष्टि में रखकर लिखा है कि मुक्तावस्था में न तो आत्मा के विशेषगुणों का उच्छेद ही होता है, न गुण और गुणी की सन्तान का नाश ही होता है और न भोग्य के न होने के कारण आत्मा सर्वथा अभोक्ता ही होता है / * कु० में विवृति का व्याख्यान करते हुए, आवरण का अस्तित्व तथा स्वरूप बतलाकर उसकी निर्जरा प्रमाणित की है। तथा सांख्य, वैशेषिक, वेदान्ती और बौद्धों के मोक्ष के स्वरूप की आलोचना करके मोक्ष का स्वरूप स्थिर किया है। अन्त में श्वेताम्बरों की केवलिभुक्ति और स्त्रीमक्तिविषयक मान्यता का खण्डन किया है। ___ का० ७७–में शास्त्राध्ययन का फल 'जिन' पद की प्राप्ति बतलाया है। / का० ७८–में उसी बात को प्रकारान्तर से कहकर शुभ कामना की है। न्या० कु. में दोनों पद्यों का व्याख्यान किया है। इस प्रकार इस संस्करण में मुद्रित प्रन्थों का संक्षिप्त विषयपरिचय जानना चाहिए / . . लघीयस्त्रय के दार्शनिक मन्तव्य - लघीयत्रय के विषयपरिचय को पढ़ने पर पाठकों को उसके दार्शनिक मन्तव्यों का आभास हो जाता है। लघीयत्रय में मुख्यतया तीन ही विषयों का विवेचन किया है-प्रमाण, नय और निक्षेप / उनमें से भी निक्षेप का तो केवल निर्देश कर दिया है। भट्टाकलं कविषयक प्रबन्ध के 'अकलंक के पहले जैनन्याय की रूपरेखा' और 'अकलंक की जैनन्याय को देन' शीर्षकों से प्रमाण की जैनसम्मत रूपरेखा पर प्रकाश पड़ सकेगा। यहाँ हम प्रमाणप्रवेश और नयप्रवेश में वर्णित विषयों की प्रवचनप्रवेश में द्विरुक्ति किये जाने के सम्बन्ध में कुछ कहेंगे। . जैनदर्शन अनेकान्तवादी है। उसका मत है कि प्रत्येक वस्तु परस्पर में विरोधी कहे जाने वाले नित्यत्व, अनित्यत्व, एकत्व, अनेकत्व, अस्तित्व, नास्तित्व आदि अनन्त धर्मों का समूह है, और वह प्रमाण का विषय है / जैनसिद्धान्त में ज्ञान के उत्पादक कारणों को प्रमाण न मानकर ज्ञान को ही प्रमाण माना है। प्रमाण के दो रूप हैं-स्वार्थ और परार्थ / ज्ञान के द्वारा वस्तु की साक्षात् ज्ञप्ति तो ज्ञाता को ही होती है। एक ज्ञाता के ज्ञान का साक्षात् उपयोम दूसरा ज्ञाता नहीं कर सकता, अतः उसके लिये शब्द का सहारा लेना पड़ता है। ज्ञान के द्वारा ज्ञाता जानता है और शब्द के द्वारा उसे दूसरों पर प्रकट करता है। इसी लिये ज्ञान को स्वाधिगम का हेतु और वचन को पराधिगम का हेतु कहा जाता है। किन्तु अधिगम का
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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