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________________ प्रस्तावना उनकी प्रतीति हो जाती है। विवृति में स्यात्कार और एवकार के प्रयोग की आवश्यकता प्रदर्शित की है। न्या० कु० में विरोधियों का निरसन करके 'स्यात् ' पद की सार्थकता सिद्ध की है। ___ का० 64 और 65 में लिखा है कि वर्ण, पद और वाक्य कभी 2 अवान्छित अर्थ को भी कह देते हैं और कभी 2 वाञ्छित को भी नहीं कहते / फिर भी बौद्धों का यह कहना कि 'शब्द वक्ता के अभिप्रायमात्र का सूचक है', लोकप्रतीति का उल्लंघन करके बोलनेवाले बौद्धों को ही शोभा देता है। विवृति में कारिका का आशय स्पष्ट करते हुए लिखा है कि मनुष्य नहीं चाहता कि उसके मुख से अपशब्द निकलें, फिर भी वे निकल जाते हैं और मन्दबुद्धि मनुष्य चाहता है कि मैं शास्त्रों का व्याख्यान करूँ किन्तु नहीं कर पाता। अतः शब्द वक्ता के अभिप्राय मात्र के सूचक न होकर उससे भिन्न अर्थ के वाचक होते हैं / न्या० कु० में मीमांसकों के शब्दनित्यत्ववाद और वेदापौरुषेयत्ववाद की तथा वैयाकरणों के स्फोटवाद की विस्तार से आलोचना की है। इसके पश्चात् संस्कृत और प्राकृत भाषा के शब्दों के साधुत्व और असाधुत्व की आलोचना करके कहा है कि शब्दों की प्रमाणता या अप्रमाणता में संस्कृतत्व और असंस्कृतत्व कारण नहीं है। जो शब्द सत्य अर्थ का प्रतिपादन करता है वह साधु है, जो नहीं करता वह असाधु है / जैसे संस्कृत शब्द संस्कृत के व्याकरण से सिद्ध होते हैं उसी प्रकार प्राकृतशब्द प्राकृतव्याकरण से सिद्ध होते हैं आदि / तथा 'प्रकृतेर्भवं प्राकृतम्' इस व्युत्पत्ति का निरसन करके 'प्रकृतिरेव प्राकृतम्' इस व्युत्पत्ति को अपनाया है / ब्राह्मणत्व जाति का भी खण्डन किया है। का० 66-67 में कहा है कि श्रुतप्रमाण के नैगम आदि सात भेद हैं, जो नय कहाते हैं / विवृति में कारिकाओं का विस्तृत व्याख्यान करते हुए सब से प्रथम यह सिद्ध किया है कि श्रुत के सिवाय अन्य ज्ञानों के भेद नय नहीं हो सकते। उसके बाद द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक को मूल नय बतलाकर द्रव्य और पर्याय की विस्तृत चर्चा की है। निश्चय और व्यवहार का भी निरूपण किया है। ___ का० ६८–में नैगमनय और तदाभास की चर्चा करके, विवृति में लिखा है कि नैगमनय में गुण और गुणी दोनों की यथासंभव विवक्षा होती है किन्तु संग्रह में केवल एक की ही विवक्षा होती है। यही दोनों में अन्तर हैं। का० ६९-और उसकी विवृति में संग्रहनय और तदाभास की चर्चा है। का० ७०-और उसको विवृति में व्यवहारनय और तदाभास का निरूपण किया है तथा भन्त में शून्याद्वैत आदि को नयाभास बतलाया हैं क्योंकि वे व्यवहार के घातक हैं / ___ का०७१–में ऋजुसूत्र और तदाभास का निरूपण है। विवृति में बौद्धों की आलोचना करते हुए लिखा है कि प्रतिभासभेद से स्वभावभेद की व्यवस्थापना करनेवाले बौद्धों को प्रतिभास के अभेद से अभेद को भी मानना ही होगा। ___का०७२–में नैगमादि चार नयों को अर्थनय और शब्दादि तीन नयों को शब्दनय बतलाया है। विवृति में शब्दनयों का व्याख्यान करके व्याकरणशास्त्र को सच्चा बतलाया है। न्या० कु० में का०६६ से 72 तक का व्याख्यानमात्र किया है / . सप्तम परिच्छेद ___का० ७३-७६-में लिखा है कि प्रमाण, नय, निक्षेप और अनुयोगों के द्वारा पदार्थो को जानकर तथा जीवसमास, गुणस्थान और मार्गणास्थान के द्वारा जीवद्रव्य को विशेषतया
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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