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________________ . सम्पादकीय Xvii भूमिका-इस भाग में ग्रन्थ तथा ग्रन्थकार अकलङ्क और प्रभाचन्द्र के सम्बन्ध में ज्ञातव्य अनेक ऐतिहासिक तथा दार्शनिक मन्तव्यों का तुलनात्मक विवेचन किया गया है / प्रन्थ विभाग में प्रन्थ का तुलनात्मक परिचय तथा विशद विषय परिचय दिया गया है / ग्रन्थकार विभाग में अकलङ्क देव का इतिहास निबद्ध किया है और अकलङ्क के साथ प्रायः मुख्य मुख्य सभी जैन तथा जैनेतर प्रन्थकारों की तुलना करते हुए बहुत सी बातों का रहस्य उद्घाटित किया है। इस भाग को यदि जैनतर्क युगके इतिहास की रूपरेखा कही जाये तो कोई अत्युक्ति न होगी। क्योंकि अकलङ्क देव को जैन न्याय के प्रस्थापक होने का श्रेयः प्राप्त हैं। यदि जैनदर्शन के कोषागार से उनके ग्रन्थरत्नों को अलग कर दिया जाये या जैनन्याय रूपी आकाश से इस जाज्वल्यमान नक्षत्र का अस्तित्व मिटा दिया जाए तो वे सूने और निष्प्रभ हो जायेंगे। अतः इस महापुरुष की जीवनगाथा और जैनन्याय के विकास की आत्मकथा दोनों परस्पर में सम्बद्ध हैं, एक के जीवन का अनुशीलन दूसरे पर प्रकाश डालने के लिये प्रदीप का काम देता है। अतः इस भाग में प्रकृतप्रन्थोंको तुलनात्मक विवेचना के साथ साथ अकलङ्क और प्रभाचन्द्र के समय और प्रन्थों की विवेचना, अकलङ्क से पहले जैनन्याय की रूपरेखा, जैनन्याय को उनकी देन, आदि सभी आवश्यक बातों पर प्रकाश डाला गया है। अकलङ्क के समयनिर्णय के प्रकाश में अन्य भी कई जैनेतर ग्रन्थकारों के प्रचलित समय के बारे में भी ऊहापोह किया गया है, इस लिये ऐतिहासिकों के लिये भी यह प्रस्तावना उपयोगी होगी। छपाई आदि-मूल, विवृति, व्याख्यान, टिप्पण और पाठान्तर के लिये उपयुक्त टाईप का उपयोग किया है। उद्धरणवाक्य इटालिक में दिये गये हैं जिससे उनके पहचानने में भ्रम न हो / पाठान्तर और टिप्पण में भेदसूचन करने के लिये पाठान्तर को मोटे और शेष टिप्पण को पतले टाईप में दिया है। प्रत्येक पत्र पर पंक्तिसंख्या भी दी गई है जिससे अन्वेषकों को अनेक सहूलियतें रहेंगी। प्रत्येक पृष्ठ के ऊपर प्रवेश, परिच्छेद, कारिका की संख्या और विषय का निर्देश कर दिया है इससे किसी भी विषय को सरलता से खोजा जा सकेगा। लिखित प्रतियों में विरामचिह्नों का उपयोग मात्र / ' ऐसी खड़ी पाई का होता है। वह भी लेखक एक पत्र या पंक्ति में शोभा के लिए इतनी पाइयां लगानी चाहिए ऐसा सोचकर जहां मन में आता है वहां लगा देते हैं। हमने इसमें अल्पविराम, अर्धविराम, विराम, आश्चर्यसूचक, प्रश्नसूचक आदि चिह्नों का उपयोग किया है। किसी खास बात को या पूर्वपक्ष के शब्दों को इस तरह सिंगल इनवर्टेड कामा में रखा है। अवतरणों को " " डबल इनवर्टेड कामा में रखा है। प्रकरणों का तथा अवान्तर चर्चाओं का वर्गीकरण करके उन्हें भिन्न भिन्न पैरोग्राफ में रखा है / जहाँ प्रकरण शुरू होता है वहाँ बगल में हेडिंग इटालिक टाइप में दे दिया है / इस तरह पाठकों की सुविधा के लिए प्रायः समुचितप्रणालियों पर ध्यान रखके इसका मुद्रण कराया गया है। प्रन्थ में जो शब्द सभी प्रतियों में अशुद्ध है तथा हमें उन शब्दों की जगह दूसरा पाठ प्रतीत हुआ उसे ( ) इस ब्रेकिट में दिया है। जिससे ग्रन्थ की मौलिकता सुरक्षित रह सके। विशेष व्यक्तियों के नाम या वादों के नामों के नीचे .. ऐसी लाइन दे दी है। संक्षेप में यही इस संस्करण का सिंहावलोकन है। __संशोधन में उपयुक्त प्रतियों का परिचय (1) 'आ०' संज्ञक, ईडरभंडार की जोर्णशीर्ण कीटदष्ट प्रति / इस प्रति में कुल 411 पत्र हैं। अन्तिम दो पत्र एक एक बाजू पर ही लिखे गए हैं। इसके शुरू के 11 पत्र सदृश लेखक के द्वारा लिखी गई लघीयत्रय की स्वविवृति की प्रति से बदल गए हैं, अर्थात् विवृति
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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