________________ 5. 62. 11] महाभारत [5. 63.6 विचित्रमिदमाश्चर्य मृगहन्प्रतिभाति मे। अचक्षुर्लभते चक्षुर्वृद्धो भवति वै युवा / प्लवमानौ हि खचरौ पदातिरनुधावसि // 11 इति ते कथयन्ति स्म ब्राह्मणा जम्भसाधकाः // 25 शाकुनिक उवाच / ततः किरातास्तदृष्ट्वा प्रार्थयन्तो महीपते / पाशमेकमुभावेतौ सहितौ हरतो मम / विनेशुर्विषमे तस्मिन्ससर्प गिरिगह्वरे // 26 यत्र वै विवदिष्येते तत्र मे वशमेष्यतः // 12 तथैव तव पुत्रोऽयं पृथिवीमेक इच्छति / विदुर उवाच / मधु पश्यति संमोहात्प्रपातं नानुपश्यति // 27 तौ विवादमनुप्राप्तौ शकुनौ मृत्युसंधितौ / दुर्योधनो योद्धमनाः समरे सव्यसाचिना। " विगृह्य च सुदुर्बुद्धी पृथिव्यां संनिपेततुः // 13 / न च पश्यामि तेजोऽस्य विक्रमं वा तथाविधम् // तौ युध्यमानौ संरब्धौ मृत्युपाशवशानुगौ। एकेन रथमास्थाय पृथिवी येन निर्जिता।। उपसृत्यापरिज्ञातो जग्राह मृगयुस्तदा // 14 प्रतीक्षमाणो यो वीरः क्षमते वीक्षितं तव // 29 एवं ये ज्ञातयोऽर्थेषु मिथो गच्छन्ति विग्रहम् / द्रुपदो मत्स्यराजश्च संक्रुद्धश्च धनंजयः / तेऽमित्रवशमायान्ति शकुनाविव विग्रहात् // 15 न शेषयेयुः समरे वायुयुक्ता इवाग्मयः // 30 संभोजनं संकथनं संप्रश्नोऽथ समागमः। अङ्के कुरुष्व राजानं धृतराष्ट्र युधिष्ठिरम्। एतानि ज्ञातिकार्याणि न विरोधः कदाचन // 16 युध्यतोर्हि द्वयोयुद्धे नैकान्तेन भवेज्जयः // 31 यस्मिन्काले सुमनसः सर्वे वृद्धानुपासते। इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि सिंहगुप्तमिवारण्यमप्रधृष्या भवन्ति ते // 17 द्विषष्टितमोऽध्यायः॥ 12 // येऽथं संततमासाद्य दीना इव समासते / श्रियं ते संप्रयच्छन्ति द्विषद्भ्यो भरतर्षभ // 18 धृतराष्ट्र उवाच / धूमायन्ते व्यपेतानि ज्वलन्ति सहितानि च / दुर्योधन विजानीहि यत्त्वां वक्ष्यामि पुत्रक / धृतराष्ट्रोल्मुकानीव ज्ञातयो भरतर्षभ // 19 उत्पथं मन्यसे मार्गमनभिज्ञ इवाध्वगः // 1 इदमन्यत्प्रवक्ष्यामि यथा दृष्टं गिरौ मया। पश्चानां पाण्डुपुत्राणां यत्तेजः प्रमिमीषसि / श्रुत्वा तदपि कौरव्य यथा श्रेयस्तथा कुरु // 20 पञ्चानामिव भूतानां महतां सुमहात्मनाम् // 2 वयं किरातैः सहिता गच्छामो गिरिमुत्तरम् / युधिष्ठिरं हि कौन्तेयं परं धर्ममिहास्थितम् / ब्राह्मणैर्देवकल्पैश्च विद्याजम्भकवातिकैः // 21 परां गतिमसंप्रेक्ष्य न त्वं वेत्तुमिहार्हसि // 3 कुञ्जभूतं गिरिं सर्वमभितो गन्धमादनम्। भीमसेनं च कौन्तेयं यस्य नास्ति समो बले। दीप्यमानौषधिगणं सिद्धगन्धर्वसेवितम् // 22 रणान्तकं तर्कयसे महावातमिव द्रुमः // 4 . तत्र पश्यामहे सर्वे मधु पीतममाक्षिकम् / सर्वशस्त्रभृतां श्रेष्ठं मेरुं शिखरिणामिव / मरुप्रपाते विषमे निविष्टं कुम्भसंमितम् // 23 युधि गाण्डीवधन्वानं को नु युध्येत बुद्धिमान् // 5 आशीविषै रक्ष्यमाणं कुबेरदयितं भृशम् / धृष्टद्युम्नश्च पाञ्चाल्यः कमिवाद्य न शातयेत् / यत्प्राश्य पुरुषो मर्यो अमरत्वं निगच्छति // 24 / शत्रुमध्ये शरान्मुश्चन्देवराडशनीसिव // 6 : - 980 -