________________ [52-7] श्रीसिंहतिलकसूरिरचितं ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखनम्॥ श्रीवर्द्धमानमीशं ध्यात्वा श्रीविबुंधचन्द्रसरिनतम् / ऋषि म ण्ड ल स्तवादिह यन्त्रस्यालेखनं वक्ष्ये // 1 // अनुवादः:-विद्वान पुरुषोमां चंद्र समा गणधरोवडे (श्री विबुधचन्द्रसूरिथी) नमस्कार करायेला श्री वर्धमानस्वामीनुं ध्यान धरीने 'ऋषिमण्डलस्तव'ने अनुसरीने अहीं हुं यंत्रना आलेखन(विधि)ने कहीश॥१॥ 1. श्रीविबुधचन्द्रसूरिनतम्- 'श्री विबुधचन्द्रसूरिजी' ए प्रन्थकारना गुरुर्नु नाम छ / अहीं ते शेष करीने योज्यु छ। 2. ऋषि–पश्यन्तीति ऋषयः / अतिशयज्ञानिनि साधौ / (अमिधानराजेन्द्र)। 10 .... ऋषि-शास्त्रचक्षुथी जगतनुं अवलोकन करनार अथवा अतिशयज्ञानवाळा साधु भगवंत / 3. मण्डल-वृत्तम् / समुदाये / (अभिधानराजेन्द्र) ऋषिमण्डल एटले ऋषिओनो समुदाय / जिनावली तथा पंच परमेष्ठी ऋषिस्वरूप छ / ' ही 'कार पण जिनावलीमय तथा पंचपरमेष्ठीमय छे* / वर्तमान चोवीशी ते अहीं जिनावली समजवी। जेओना बिबोनु ते ते वर्णोथी (रंगथी) 'ही'कारमा आलेखन थाय छ। 4. ऋषिमण्डलस्तवात्-प्रस्तुत ग्रंथ 'ऋषिमण्डलस्तव'ने अनुसारे यन्त्रालेखन केम करवू ते जणाववा माटे रचायोछे / माटे ज 'ऋषिमण्डलस्तवात्' एम पंचमी विभक्तिनो प्रयोग करवामां आव्यो छ। 5. यन्त्र-शान्त्याधर्थकरलेखनप्रकारके / शान्ति, तुष्टि, पुष्टि आदि अर्थक्रियाकारि कर्म माटे आलेखननो प्रकार ते यन्त्र / देव्याः (देवस्य) गृहयन्त्रम् (भैरवपद्मावतीकल्प पृ. 11 श्लो. 13) 15 मायावी लक्ष्यं परमेष्ठि-जिनालि-रत्नरूपं यः। ध्यायत्यन्तीरं हृदि स श्रीगौतमः सुधर्माऽथ // 446 // -श्रीसिंहतिलकसूरिरचितं 'मन्त्रराजरहस्यम्' . अनुवादः-जे पंचपरमेष्ठि, जिनचतुर्विशति अने रत्नत्रयरूप मायाबीजने लक्ष्य (मुख्य ध्येय) बनावीने तेनु हृदयमा ध्यान करे छे, ते भी वीर परमात्मानुं हृदयमा ध्यान करनार श्री गौतम के सुधर्मा गणधर सदृश 25 थाय छे (1) /