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________________ 40 नमस्कार स्वाध्याय [संस्कृत मुंब्ये प्रणिधेयेऽर्हति सातिशयं प्रणिधानं ख्यापितवान् / येन हि यस्य नामाऽपि ध्यातं तेन स नितरां ध्यात इति यथोक्तमेव साधु / तथा सर्वपार्षदत्वादस्य काव्यस्य सर्वदर्शनानुयायी नमस्कारो वाच्य इत्यर्ह शब्देन परमेष्ठिशब्देन च हरि-हर ब्रह्माणोऽपि व्याख्येयाः। यथा परमेष्ठिनो हरेईरस्य ब्रह्मणश्च वाचकमहमिति 5 प्रणिमहे / अर्हशब्दस्य घेते त्रयोऽपि षाच्याः; यदुकम् 'अकारणोच्यते विष्णू रेफे ब्रह्मा व्यवस्थितः। हकारेण हरः प्रोक्तस्तदन्ते परमं पदम् // शेष प्राग्वद् ध्याख्येयम्। जेना वडे जेना नामर्नु पण ध्यान कराय छे, तेना वडे ते (अभिधेय) ध्यात ज समजबुं / तेथी:उपर 10जे जणाव्युं छे ते ज उचित छ। (जुदी रीते अन्वय करीने जे शंका कराई छे, ते ठीक नथी।.)* वळी, आ काव्य सर्व सभाजनो माटे होवाथी सघळा दर्शनोने मान्य नमस्कार अहीं कहेंवो जोईए एटले 'अहं' शब्द अने ‘परमेष्ठी' शब्दथी हरि, हर अने ब्रह्मा पण व्याख्येय छे जेमके परमेष्ठी, विष्णु, शिव अने ब्रह्माना वाचक :अर्ह' शब्द- अमे प्रणिधान करीए छीए। 'अर्ह'' शब्दना हरि, हर अने ब्रह्मा ए त्रण वाच्य छे; कयुं छे के15 'अहं' शब्दमा रहेला अकारवडे विष्णु कहेवाय छे, रेफमा ब्रह्मा व्यवस्थित छे अने हकारथी शिव कहेवामां आव्या छे, ते पछीनो 'म्' परमपदनो वाचक छ / बाकीनो अर्थ पूर्वनी माफक समजवो। ____ परिचय श्री हेमचंद्राचार्ये जे 'सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन' रच्यु, तेना प्रयोगोने सूत्रक्रमे बतावतां अने 20 साथोसाथ गूर्जरनृपति सिद्धराज जयसिंह तेमज कुमारपाल राजाओना चरितनुं वर्णन करवा 'द्वयाश्रय' नामने सार्थक करता लाक्षणिक महाकाव्यग्रंथनी रचना करी छे, तेमां व्याकरणग्रंथना मंगलाचरणना प्रथम 'अर्ह' सूत्र माटे 'द्वयाश्रयमहाकाव्य 'नुं प्रथम पद्य अने तेना ऊपर सं. 1312 मां श्रीअभयतिलकगणिए स्चेली टीकानो संदर्भ अहीं अनुवाद साथे आप्यो छे। मूळ श्लोक अनुष्टुप्मां अने टीका गद्यमां छे / ___टीकामां 'अहं' तत्त्वना गौणत्व अने मुख्यत्व विशे खास चर्चा करीने तेना रहस्य- उद्घाटन 25 करवामां आव्युं छे। आ टीकामां कहेवामां आव्युं छे के 'अर्ह' ए सुवर्णसिद्धिओनो मूळ हेतु छ / एकंदरे आ टीका 'अहं' ने जाणवा माटे धणी उपयोगी छे। * अहीं आपेला उत्तरनो आशय ए छे के, पोताना स्वामीनो पत्र आवे तो जेम कोई माणस ए पत्र उपर खूब भक्ति बतावीने वस्तुतः ए पत्र लखनार उपर ज पोतानी अतिशय भक्ति प्रगट करे छे ते प्रमाणे 'आई' अक्षरनु प्रणिधान करतां वस्ततः अरिहतनुं न प्रणिधान थाय छे: जेम कोई माणस कोई व्यक्तिना नामर्नु आखो दिवस रटण 30 करतो होय त्यारे देखीती रीते भले ए नामर्नु रटण करतो होय पण वस्तुतः एमां ए व्यक्तिनु ज रटण-चिंतन-स्मरण रहेलु होय के तेम अईना प्रणिधानमां वस्तुतः अरिहंतनुं न प्रणिधान रहेलु छ।
SR No.004318
Book TitleNamaskar Swadhyay Sanskrit Vibhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhurandharvijay, Jambuvijay, Tattvanandvijay
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1962
Total Pages398
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size10 MB
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