SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नमस्कार स्वाध्याय [संस्कृत तथा [तदभिधेयेनेत्यादि-] तस्य ‘अर्ह' इत्यक्षरस्य यदभिधेयं परमेष्ठिलक्षणं तेनात्मनोऽभेद एकीभावः / तथाहि केवलज्ञानभास्वता प्रकाशितसकलपदार्थसाथै, चतुस्त्रिंशदतिशयैर्विज्ञातमाहात्म्यविशेषम् , अष्टप्रातिहाविभूषितदिग्वलयं, ध्यानाग्निना निर्दग्धकर्ममलकलङ्क, ज्योतीरूपं, सर्वोपनिषद्भूतं, प्रथमपरमेष्ठिनमर्हभट्टारकम् , आत्मना सहाभेदीकृतं 'स्वयं देवो भूत्वा देवं ध्यायेत् ' इति यत् सर्वतो ध्यानं 5 तद् 'अभेदप्रणिधानम्' इति / (विशिष्टप्रणिधानम्-वयमपि चैतच्छास्त्रारम्भे प्रणिदधमहे / तत्त्वम्-अयमेव हि तात्त्विको नमस्कार इति // 1 // ) अस्यैव विघ्नापोहे दृष्टसामर्थ्यादन्यस्य तथाविधसामर्थ्यस्यार्थ्या)विकलस्यासम्भवात् तात्त्विकत्वादात्मनोऽप्येतदेव प्रणिधेयं वयमपीत्यादिना दर्शयति10. विशिष्टप्रणिधेय-प्रणिधानादिगुणप्रकर्षादात्मन्युत्कर्षाधानाद् गुणबहुत्वेनात्मनोऽपि तदभिन्नतया बहुत्वाद् वयमिति बहुवचनेन निर्देशः / 'अर्ह' अक्षरना अभिधेय जे प्रथम परमेष्ठी तेमनी साथे पोताना आत्मानो एकीभाव ते अमेद प्रणिधान छ / जेमके केवलज्ञानरूप सूर्यवडे सकल पदार्थोना समूहने प्रकाशित करनारा, जेमनुं विशिष्ट माहात्म्य चोत्रीश अतिशयो वडे सारी रीते जाणी शकाय छे एवा, आठ महाप्रातिहार्योथी दिशाओना 15 मण्डलने विभूषित करता, ध्यानरूप अग्निवंडे कर्ममलरूप कलंकने भस्मसात् करनारा, ज्योतिस्वरूप अने. समग्रश्रुतना रहस्यभूत एवा प्रथम परमेष्ठी श्री अरिहंत भगवंतनो स्वकीय आत्मानी साथे अमेद करीने'पोते देवं बनीने देवनुं ध्यान करवु' ए नियम मुजब सर्व रीते ध्यान करवू ते 'अभेदप्रणिधान' कहेवाय छे। .. (7. तत्त्व) 20 ग्रंथकार कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य भगवान् कहे छे के अमे पण प्रस्तुत शास्त्रना प्रारंभमां 'अर्ह' नुं प्रणिधान करीए छीए, कारण के ए ज तात्त्विक नमस्कार छ। विघ्नोने दूर करवामां आ 'अर्ह 'नु सामर्थ्य स्पष्ट रीते देखातुं होवाथी अने बीजा मंत्रोमा तेवा ...प्रकारना सामर्थ्यनी पूर्णता असंभवित होवाथी 'अहं' ए ज तात्त्विक छ / तेथी अमारा माटे पण ए ज प्रणिधेय छे, एम 'वयमपि....'वडे दर्शावे छे। 25. विशिष्ट प्रणिधेय-प्रणिधानादिमां गुणोनो प्रकर्ष होवाथी आत्मामां (गुणोना) उत्कर्षनें आधान थाय छे / तेथी आत्मा बहु गुणवाळो बनवाथी अने आत्माने (बहु) गुणोनी साथे अभेद होवाथी प्रस्तुतमां 'वयं' एम बहुवचन वडे निर्देश कर्यो छे / 1. तदभिधेयेनेत्यादिना पिण्डस्थम् / अनुवादः तेना 'अभिधेय वडे' ए द्वारा 'पिंडस्थ ध्यान' बताव्युं छे / 30 2. हैमप्रकाशव्याकरणेऽभेदप्रणिधानस्य–'अर्हदभिन्न अर्हकारेण सर्वतो वेष्टितमात्मानं ध्यायेत्' इति भावार्थो निर्दिष्टः। अनुवादः-हैमप्रकाश व्याकरणमां अभेदप्रणिधान विशे–'अरिहंतथी अभिन्न अने अर्हकारथी आत्माने सर्वतः वेष्टित करीने ध्यान करवू' एवो भावार्थ जणाव्यो छे।।
SR No.004318
Book TitleNamaskar Swadhyay Sanskrit Vibhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhurandharvijay, Jambuvijay, Tattvanandvijay
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1962
Total Pages398
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy