________________ विभाग] यद्वा, दृष्टात् क्रियाविशेषाद् यत् फलम्-"क्रियैव फलदा पुंसाम्।" इत्युक्ते (क्तेः) तथैव दर्शनत्वे(नाच), न हि क्रियाविरहिता एवमेवोदासीनाः फलानि समश्नुवते; यच्चादृष्टात् पुण्यविशेषाद् , अखिलं फलं, तस्य संकल्पः, शेषं पूर्ववत् / त्रिविधं हि फलम्--किञ्चित् क्रियाजं मनुष्यादीनां व्यापारविशेषात् कृषि-पशुपाल्य-राज्यादि, किञ्चिद्धि पुण्यादेव व्यापाराभावशालिनां कल्पातीतदेवानाम् , किश्चिदुभयजं व्यन्तरादीनाम् / 5 . यदि वा, दृष्टानां प्रत्यक्षेणोपलब्धानां मनुजादीनाम् , अदृष्टानां चानुमानगम्यानाम्, अखिला ये फले संपूर्णाः कल्पा एकहेलयैव समुदिता ईषदूनास्ते ते]षां कल्पो वा विधानं स एव प्रसरणशीलत्वेन द्रुमः-पादपः स उप सामीप्येन मीयते परिच्छिद्यतेऽनेनेति / एवं हि तस्य परिच्छेदो भवति—यद्येकहेलयैव तत्संकल्पानां संपादनं भवति, तत् समर्थ चेदं बीजमिति, माहात्म्यविशेषश्चान्येभ्यो महामन्त्रेभ्योऽस्य मन्त्रराजस्यानेन विशेषणेन ख्याप्यते। 10 अथवा दृष्ट एटले क्रियाविशेष, तेथी उत्पन्न थतुं फळ / “पुरुषोने क्रिया ज फळदायक बने छे।" -एवा वचनथी अने ते प्रमाणे अनुभव थतो होवाथी क्रियारहित एम ने एम (जेम थवानुं हशे तेम थशे एम मानी निष्क्रिय पडी रहेनारा) उदासीन माणसो फळने सारी रीते मेळवी शकता नथी; अने अदृष्ट एटले पुण्यविशेषथी (पुण्यानुबंधिपुण्यनी प्राप्ति करावीने) ए सर्व फळोना संकल्पने पूरवामां कल्पवृक्ष समान छ / . फळ त्रण प्रकारना छे-(१) केटलांक क्रियाथी उत्पन्न थतां, (2) केटलांक पुण्यथी ज उत्पन्न 15 थतां अने (3) केटलांक क्रिया अने पुण्यथी उत्पन्न थतां। ... (1) क्रियाथी उत्पन्न थतां फळ ते मनुष्य वगेरेने होय छे / कृषि, पशुपालन अने राज्य वगेरे व्यापारविशेषोथी ते फळो मळे छे। (2) पुण्यथी उत्पन्न थतां फळ ते (पूर्वोक्त) व्यापारविशेष विना मळे छे अने ते कल्पातीत (नव प्रैवेयक, पांच अनुत्तर विमानना) देवोने होय छे / (3) क्रिया अने पुण्यथी उत्पन्न थतां फळ ते व्यंतर वगेरे देवोने मळे छ। 20 . अथवा मनुष्य वगेरेने जे प्रत्यक्ष जणाय ते 'दृष्ट' अने जे अनुमानथी जणाय ते 'अदृष्ट / एवा दृष्ट अने अदृष्ट फळविषयक (अर्ह सिवायना अन्य) सर्व कल्पोने जो एकी साथे एकत्र समुदित करवामां आवे तो पण तेओ जे कल्प (विधान)थी कंइक न्यून (फळ आपनारां) बने तेवो कल्प (विधान) 'अर्ह' नो छे। ते 'कल्प' प्रसरणशील (समुदित अन्य कल्पो करतां वधु विस्तृत फळ आपनार) होवाथी अहीं 'वृक्ष' कहेवायो छ / तेथी अर्ह ने 'कल्पवृक्ष 'नी उपमा आपवामां आवे छे / ए रीते (उप-25 माथी) तेनुं विशिष्ट ज्ञान थाय छे। तात्पर्य ए छे के जो इतर सर्व कल्पोना समुदित फळनुं एकी साथे संपादन थतुं होय तो ते करवा माटे आ अर्ह बीज समर्थ छे / ए रीते "अखिल दृष्टा....” इत्यादि विशेषण वडे अन्य महामन्त्रो करतां 'अर्ह 'नुं माहात्म्य विशेष छे ए बतावाय छ / 1. दृष्टं राज्यादि। अनुवादः–दृष्ट फळ एटले राज्य वगेरे। 2. अदृष्टं स्वर्गादि अनुवादः-अदृष्ट फळ एटले स्वर्ग वगेरे। 30