________________ नमस्कार स्वाध्याय [संस्कृत स्वरूपा-ऽर्थ-तात्पर्यैः स्वरूपमुक्त्वा प्रकृते योजयति . (प्रणिधानम्-आशास्त्राध्ययनाऽध्यापनावधि प्रणिधेयम् / ) 'आङ् अभिव्याप्तौ; स च शास्त्रेण संबध्यते। अध्ययनाऽध्यापनाभ्यां संबद्धोऽवधिर्मर्यादार्थः। . तेनायमर्थः-शास्त्रमभिव्याप्य येऽध्ययना-ऽध्यापने ते मर्यादीकृत्य प्रणिधेयमित्यर्थः। प्रणिधानं व्याचष्टे (प्रणिधानस्य दैविध्यम्-प्रणिधानं चानेनात्मनः सर्वतः संभेदस्तदभिधेयेन चाभेदः।) ." प्रणिधानं चेत्यादिना—अनुवादमन्तरेण स्वरूपस्य व्याख्यातुमशक्यत्वात् प्रणिधानं चेति स्वरूपमनूदितम्, 'पुनरर्थः'च शब्दनिर्देशात् / अनेनेति' 'अर्ह' इति बीजेन। प्रणिधानस्य च संमेदा-ऽभेदरूपेण द्वैविध्यात् / 10 स्वरूप, अर्थ (अभिधेय) अने तात्पर्य (एम त्रण प्रकारो) वडे स्वरूप जणावीने चालु विषयमा तेनी योजना करे छ। (6. प्रणिधान) शास्त्रनुं अध्ययन के अध्यापन शरू थाय त्यांथी ते पूरुं थाय त्यांसुधी (आ मन्त्रराजनुं) प्रणिधान करवू जोईए। 15 हवे प्रणिधान विशे जणावे छे - (प्रणिधानना बे प्रकारो) प्रणिधान बे प्रकारे छे:- 1. आ मन्त्रराज साथे (पोताना) आत्मानो चारे तरफथी संभेद अने 2. तेना अभिधेय प्रथम परमेष्ठिनी साथे अभेद / _ अनुवाद विना स्वरूप कही शकातुं नथी-तेथी 'प्रणिधानं च' वडे पुनरर्थक 'च' शब्दना 20 निर्देशथी स्वरूपनो अनुवाद कर्यो छे। अनेन =आ 'अहं' बीजवडे (प्रणिधान कराय छे)। तेना बे प्रकारो छे (1) संभेद प्रणिधान अने (2) अभेद प्रणिधान। 1. प्रणिधानं च चतुर्धा-पदस्थम् , पिण्डस्थम् , रूपस्थं, रूपातीतं चेति। पदस्थं 'अर्ह' शब्दस्थस्य, पिण्डस्थं शरीरस्थस्य, रूपस्थं प्रतिमारूपस्य, रूपातीतं योगिगम्यमहतो ध्यानमिति / एष्वाद्ये द्वे शास्त्रारम्भे संभवतः नोत्तरे। ___ अनुवादः- प्रणिधान चार प्रकारनुं छे–(१) पदस्थ (2) पिंडस्थ (3) रूपस्थ (4) रूपातीत / 'अर्ह' 25 शब्दमा रहेला श्री अरिहंत परमात्मानुं ध्यान ते 'पदस्थ ध्यान'। शरीरस्थ अरिहंतनुं ध्यान ते 'पिण्डस्थ ध्यान', प्रतिमारूपे रहेला अरिहंतनुं ध्यान ते 'रूपस्थ ध्यान' अने 'रूपातीत ध्यान' योगिगम्य छे। शास्त्रना आरंभमां (वाचनादि प्रवृत्तिमां) आमाथी प्रथमनां बे ध्यान संभवे छे, पछीनां बे ध्यान संभवतां नथी। 2. अनेनात्मनः सर्वतः संभेद इत्युक्ते पदस्थम् / अनुवादः- आ (अर्हकार) नी साथे आत्मानो चारे बाजुएथी संभेद छे एम जे कहेवामां आव्युं छे, 30 ते 'पदस्थ ध्यान' छे। -