________________ 28 नमस्कार स्वाध्याय [संसहत सपरिकरो हि वर्णो मन्त्रो भवति, केवलस्यार्थक्रियाविरहात्। तस्य च बाह्याभ्यन्तरमेदेन द्वैविध्यात्। मण्डल-मुद्रादेर्बाह्यत्वात्, नाद-बिन्दु-कलादेरान्तरत्वात् , तेषामेवोद्दीपकत्वात्, तथाभूतानामेव क्रियाजनकत्वात् / मण्डल-मुद्रादीनां केवलानामपि फलजनकत्वात् / विशेषतः समुदितानां ग.......वाचकम् / ' (अभिधेयम्-परमेश्वरस्य परमेष्ठिनो वाचकम्।) "देवतानां गुरूणां च नाम नोपपदं विना। उच्चरेनैव जायायाः कथञ्चिन्नात्मनस्तथा // " इति वचनाद् निरूपपददेवतानामोच्चारणस्य प्रतिषेधात्, प्रतिषिद्धाचरणे च प्रायश्चित्तोपदेशात् , सोपपददेवतानामोच्चारणस्यैव प्राप्तत्वात् / अन्यस्य च श्रीप्रभृतेरुपपदस्य तुच्छत्वेन तथाविधवैशिष्टयाप्रति पादकत्वाद् वैशिष्टयप्रतिपादनार्थ तस्य परमेश्वरस्य इत्युपपदमुपन्यस्यति / परमं यदैश्वर्यमणिमादि यच्च 10 उत्तर-परिकर सहित वर्ण ज मंत्र- कार्य करी शके छे। एकलो वर्ण ते कार्य करी शकतो नथी। ते परिकर बे प्रकारे छेः (1) बाह्य अने (2) आभ्यन्तर / आ बन्ने प्रकारंना परिकर सहित जो मंत्र होय तो ज ते परिपूर्ण फळने आपे छे। मण्डल-मुद्रा वगेरे बाह्य परिकर छे, नाद-बिन्दु-कला वगेरे आभ्यन्तर परिकर छे / मंडलमुद्रादि अने नादबिन्दुकलादि ज उद्दीपक छे। उद्दीपक अवा तेओ ज अर्थक्रियाना जनक छे। मंडल-मुद्रा 15 वगेरे एकलां पण फळ तो आपे छे परंतु ते सामान्य प्रकारचें फळ होय छे; पण ज्यारे बधां मेगां थाय त्यारे विशेष फळ आपे छे। (2. अभिधेय) अर्ह ते परमेश्वररूप परमेष्ठीनो वाचक छ। परमेष्ठी देवता छ। (शास्त्रमा कयुं छे के-) "देवताओ अने गुरुओर्नु नाम उपपद विना कदापि बोलवू न जोईए; अने बने त्यां सुधी पत्नीनुं 20 तेम ज पोतानुं नाम पण उच्चार न जोईए।" शास्त्रना ए वचनने अनुसारे देवतार्नु नाम उपपद विना उच्चारण कर शास्त्रथी निषिद्ध छ। निषिद्ध कार्य करवाथी प्रायश्चित लागे एवो उपदेश छे, तेथी देवतानुं नाम उपपदपूर्वक ज बोलवू योग्य छ। बीजा जे 'श्री' वगेरे साधारण शब्दो उपपद तरीके अगर तो विशेषण तरीके वापरवा ए तुच्छपणुं दाखवे छे, माटे विशिष्ट गुणो प्रतिपादन करे तेवू विशेषण 'परमेश्वर' पद छे अने ते पदनो अहीं विशेषण तरीके 25 उपयोग सुयोग्य रीते थयो छ। सर्वोत्तम ऐश्वर्य जे अणिमा आदि सिद्धिरूप छे अने जे परम योग अने 1. अहीं मूळ ग्रंथमा सात पंक्ति जेटलो महत्त्वनो पाठ अनुपलब्ध छ / 2. परमेष्ठिनः पञ्च, ततः शेषचतुष्टयव्यवच्छेदायाऽऽह-परमेश्वरस्येति / चतुस्त्रिंशदतिशयरूपपरमैश्वर्यभाजो जिनस्येत्यर्थः / ननु ‘परमेष्ठी 'ति सामान्यं पदं तथापि 'अर्ह' इति भणनाद् ‘अर्हन्' एव लभ्यते, किं परमेश्वरस्येति ? सत्यम्-"देवतानां गुरूणां च" इति (इत्यादि)। अनुवादः-परमेष्ठिओ पांच छे, तेथी बाकीना चारने अलग करवा 'परमेश्वर' एवं परमेष्ठीनुं विशेषण जणाववामां आव्युं छे / अर्थात् चोत्रीश अतिशयरूप परम ऐश्वर्यथी शोभता एवा श्रीजिनेश्वर (अरिहंत) एवो अर्थ उद्दिष्ट छे; त्यारे ए प्रभ थाय छे के, परमेष्ठी ए सामान्य पद छे छतां 'अहं' कहेवाथी 'अर्हन्' ज समजाय छे त्यारे 'परमेश्वर' एवं विशेषण मूकवानुं प्रयोजन शुं? एना उत्तरमा कहे छे के-'देवता अने गुरुनु नाम उपपद विना कदापि बोलवू न जोईए, तेम ज पत्नीनुं अने पोतानुं नाम पण बने त्यांसुधी उच्चार न जोईए।'