________________ [49-4] श्रीजयसिंहसूरिविरचितः 'धर्मोपदेशमाला'न्तर्गतः 'अहं' अक्षरतत्त्वस्तवः प्रणम्य तत्त्वकर्तारं महावीरं सनातनम् / श्रुतदेवी गुरुं चैव परं तत्त्वं ब्रवीम्यहम् // 1 // शान्ताय गुरुभक्ताय विनीताय मनस्विने / श्रद्धावते प्रदातव्यं जिनभक्ताय दिने दिने // 2 // अकारादि-हकारान्ता प्रसिद्धा सिद्धमातृका / युगादौ या स्वयं प्रोक्ता ऋषभेण महात्मना // 3 // एकैकमक्षरं तस्यां तत्त्वरूपं समाश्रितम् / तत्रापि त्रीणि तत्त्वानि येषु तिष्ठति सर्ववित् // 4 // अ' तत्त्वम् अकारः प्रथम तत्वं सर्वभूताभयप्रदम् / कण्ठदेशं समाश्रित्य वर्तते सर्वदेहिनाम् // 5 // अनुवाद - 15 .. तत्त्व (मोक्षमार्ग) ना कर्ता (आद्य उपदेशक) अने सनातन एवा श्री महावीर प्रभु, श्रुतदेवी अने। श्री सद्गुरुने नमस्कार करीने हुं परतत्त्व 'अहं 'कारने कर्जा छु // 1 // - आ तत्त्व-'अर्ह 'कार शान्त, गुरुभक्त, विनीत, स्वाधीनचित्तवाळा, श्रद्धावान् अने प्रतिदिन जिनभक्तिमां वधता एवा योग्य पुरुषने ज आपq // 2 // 'अ'थी शरु थती अने 'ह'मां अंत पामती एवी (ते) सिद्ध-मातृका (अनादिसिद्ध बाराक्षरी- 20 बाराखडी) प्रसिद्ध छे के जेने युगना प्रारंभमां परमात्मा श्री ऋषभदेव भगवंते स्वयं कही हती // 3 // .. ते(सिद्धमातृका)मांनो एक एक अक्षर तत्त्वरूपने समाश्रित (प्राप्त) छे (अर्थात् प्रत्येक अक्षर तत्त्वरूप छे)। तेमां पण 'अ', 'र' अने 'ह' ए त्रण तत्त्वो एवां (विशिष्ट) छे के जेमां सर्वज्ञ परमात्मा रहेला.छे // 4 // 'म' तत्त्व वर्णन : 25 तेमां अकार प्रथम तत्त्व छे, सर्व प्राणीओने अभय आपनाएं छे अने सर्व देहधारीओना कंठस्थानने आश्रीने रहेलं छे // 5 //