________________ विभाग] 297 षोडशकप्रकरणसंदर्भः आधीनां परमौषधमव्याहतमखिलसम्पदा बीजम् / चक्रादिलक्षणयुतं, सर्वोत्तमपुण्यनिर्माणम् // 15-3 // निर्वाणसाधनं भुवि, भव्यानामय्यमतुलमाहात्म्यम् / सुरसिद्धयोगिवन्यं, वरेण्यशब्दाभिधेयं च // 15-4 // तनुकरणादिविरहितं, तच्चाचिन्त्यगुणसमुदयं सूक्ष्मम् / त्रैलोक्यमस्तकस्थं, निवृत्तजन्मादिसङ्क्लेशम् // 15-13 // ज्योतिः परं परस्तात्तमसो यद्गीयते महामुनिभिः। .आदित्यवर्णममलं, ब्रह्माद्यैरक्षरं ब्रह्म // 15-14 // नित्यं प्रकृतिवियुक्तं, लोकालोकावलोकनाभोगम् / स्तिमिततरङ्गोदधिसममवर्णमस्पर्शमगुरुलघु // 15-15 // -- सर्वाबाधरहितं, परमानन्दसुखसङ्गतमसङ्गम् / निःशेषकलातीतं, सदाशिवाद्यादिपदवाच्यम् // 15-16 // x. पीडाओर्नु परम औषध, सर्व संपत्तिओनुं अनुपहत-अवन्ध्य बीज, चक्रादि लक्षणोथी युक्त, सर्वोत्तम पुण्यना परमाणुओथी बनेला, पृथ्वी पर भव्योने माटे निर्वाण- परम साधन, असाधारण माहात्म्यवाळा, 15 देवो अने सिद्धयोगिओ (विद्यामंत्रादिसिद्धो) ने पण वंदनीय अने 'वरेण्य' शब्द वडे वाच्य एवा श्रीजिनेन्द्ररूपनुं ध्यान करवू (ए सालंबन योग छे) // 15-1/4 // श्रीसिद्धरूपर्नु निरालंबन ध्यान आ रीते छे: ते सिद्धरूप-शरीर, इन्द्रियो अने मन विनान, अचिन्त्य एवा केवलज्ञानादि गुणोवाळु, केवलज्ञान विना सम्पूर्ण रीते न जाणी शकाय एवं, त्रणे लोकना मस्तकरूप सिद्धशिला पर विराजमान, जन्म-जरादि संझेशोथी रहित, ज्ञानसंपन्न एवा ब्रह्मादि महामुनिओ 20 जेने परंज्योति, अन्धकारथी पर-अस्पृष्ट, आदित्यवर्ण कहे छे ए, अत्यन्त निर्मल, अक्षर, ब्रह्म, नित्य, ज्ञानावरणीयादि कर्मप्रकृतिथी रहित, लोकालोकना अवलोकनना उपयोगवाळू, निस्तरङ्ग-प्रशान्त महासागर सदृश, अवर्ण, अस्पर्श, अगुरुलघु, अमूर्त, सर्व बाधाओथी रहित, परमानंदवाळा सुखथी युक्त, असंग, सर्वकलाओ (तथाभव्यत्व, असिद्धत्व, वगेरे संसारि-जीव-स्वभावो) थी रहित अने 'सदाशिव' वगेरे पदोवडे वाच्य छ / 15-13/16 // 25 1 टीका:-परम आनन्दो यस्मिन् सुखे, तेन संगतम् / 38