________________ विभाग नमस्कारमन्त्रस्तोत्रम् (वसन्ततिलकावृत्तम्) इन्दुर्दिवाकरतया रविरिन्दुरूपः पातालमम्बरमिला सुरलोक एव / किं जल्पितेन बहुना भुवनत्रयेऽपि यन्नाम तम विषमं च समं च न स्यात् // 7 // जग्मुर्जिनास्तदपवर्गपदं तदैव विश्वं वराकमिदमत्र कथं विनाऽस्मात् / तत् सर्वलोकभुवनोद्धरणाय धीरेमन्त्रात्मकं निजवपुर्निहितं तदत्र // 8 // (शार्दूलविक्रीडितवृत्तम्) हिंसावाननृतप्रियः परधनाऽऽहर्ता परस्त्रीरतः किश्चान्येष्यपि लोकगर्हितमतिः पापेषु गाढोद्यतः / मन्त्रेशं यदि संस्मरेच्च सततं प्राणात्यये सर्वदा दुष्कर्माहितदुर्गतिक्षतचयः स्वर्गीभवेन्मानवः // 9 // 10 ' आ महामंत्रना प्रभावथी चंद्र सूर्यरूपे अने सूर्य चंद्ररूपे, पाताल आकाशरूपे (अने आकाश 15 पातालरूपे) अने पृथ्वी देवलोकरूपे (अने देवलोक पृथ्वीरूपे) थई शके। वधारे कहेवाथी शुं ? त्रण जगतमां एवी कई वस्तु छे के जे ए मंत्रथी विषमनी सम के समनी विषम न थई शके ? (अर्थात् आ पंचपरमेष्ठिमंत्रना प्रभावथी वस्तुने जे रूपे बदलाववी होय ते रूपे बदलावी शकाय.) // 7 // ____ ज्यारे श्री जिनेश्वर भगवंतो मोक्षमां गया त्यारे, “अमारा विना अहीं बिचारा आ जगतनुं शुं थशे ?", (एवी करुणाथी) धीर एवा तेओ सर्व जगतना जीवोना उद्धार माटे पोताना मंत्रात्मक शरीरने अहीं 20 मूकता गया छे // 8 // हिंसा करनार, असत्यप्रिय, पारकुं धन हरण करनार, परस्त्रीमां आसक्त तथा बीजा पण पापोमा अत्यंत तत्पर अने लोकोए जेनी बुद्धिनी निंदा करी छे एवो पुरुष पण जो मरण वखते आ मंत्रसर्वदा सतत स्मरण करे तो ते दुष्कर्मथी प्राप्त करेल दुर्गतिना संचयनो (दुर्गति प्रायोग्य कर्म समूहनो) क्षय करीने देव थाय छे // 9 // 25 1. सदैव / 2. अज्ञेष्वपि /