________________ श्रीवर्धमानसूरिविरचितः आचारदिनकरसंदर्भः 5 (उपजाति-वृत्तम्) अर्हन्त ईशाः सकलाश्च सिद्धा, आचार्यवर्या अपि पाठकेन्द्राः। मुनीश्वराः सर्व-समीहितानि, कुर्वन्तु रत्नत्रय-युक्तिभाजः॥१॥ (शार्दूलविक्रीडित-वृत्तम्) विश्वाग्र-स्थितिशालिनः समुदयासंयुक्त-सन्मानसानानारूप-विचित्र-चित्र-चरिताः सन्त्रासितान्तषिः / सर्वाध्व-प्रतिभासनैक-कुशलाः सर्वैर्नताः सर्वदा, श्रीमतीर्थकरा भवन्तु भविनां व्यामोह-विच्छित्तये // 2 // (वसन्ततिलकावृत्तम्) यद्दीर्घकाल-सुनिकाचित-बन्धबद्धन, मष्टात्मकं विषम-चारमभेद्य-कर्म / तत्सभिहत्य परमं पदमापि यैस्ते, सिद्धा दिशन्तु महतीमिह कार्यसिद्धिम् // 3 // अनुवाद रत्नत्रयनी सम्यक्ताने धारण करनारा ऐश्वर्यशाली अरिहंतो, सर्व सिद्धो, आचार्यवर्यो, उपाध्यायो अने मुनीश्वरो सौनी बधी अभिलाषाओ (पूर्ण) करो // 1 // (विशिष्ट प्रकारना तथाभव्यत्वना कारणे आ) विश्वमा सर्वदा उत्तम स्थितिथी शोभता, सर्व जीवोना 20 परम हितने विषे पोताना सुंदर मानसने जोडनारा, नाना प्रकारना चित्रविचित्र चरित्रवाळा, आन्तरशत्रुओने सारी रीते त्रास पमाडनारा, (मोक्षना) बधा मार्गाने (योगोने) प्रकाशित करवामां- अद्वितीय कुशल, सर्व जीवो वडे नमन करायेला अने सर्व इच्छितने आपनारा एवा तीर्थकरो भव्य-प्राणीओना मोहनो विच्छेद करनारा थाओ // 2 // . लांबी स्थितिवाळा, अत्यन्त निकाचित (गाढ) बन्धथी बंधायेला, विषम विपाकवाळा अने दुर्भेद्य 25 एवा आठे प्रकारना कर्मोनो सारी रीते नाश करीने जेमणे परम-पद(मुक्ति)ने प्राप्त कयुं ते सिद्धो अहीं महान् कार्यसिद्धि आपो // 3 //