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________________ 238 [संकत नमस्कार स्वाध्याय दिवा रात्रौ सुखे दुःखे, शोके हर्षे गृहे बहिः। क्षुधि तृप्तौ गमे स्थाने, ध्यातव्याः परमेष्ठिनः // 42 // परमेष्ठिनमस्कारः, सारः सद्धर्मकर्मसु / नवनीतं यथा दनि, कवित्वे च यथा ध्वनिः॥४३॥ भावसारं स्मृतादस्माज्ज्वलनोऽपि जलायते / मालायते भुजङ्गोऽपि, विषमप्यमृतायते // 44 // हारायते कृपाणोऽपि, सिंहोऽपि हरिणायते / मित्रायते सपत्नोऽपि, दुर्जनः सजनायते // 45 // अरण्यानि गृहाणीव, स्वचौरा अपि रक्षकाः / क्रूरा अपि ग्रहाः सानुग्रहाः क्षिप्रं भवन्ति च // 46 // जनयन्ति सुशकुनफलं कुशकुना अपि / दुःस्वमा अपि सुस्वमा, इव स्युरचिरादपि // 47 // जनन्य इव शाकिन्यो, वात्सल्यं दधतेतराम् / कराला अपि वेताला, जायन्ते जनका इव / / 48 // . दुर्मन्त्र-तन्त्र-यन्त्रादिप्रयोगः प्रभवेन च / कियद् घूका विजृम्भते, सहस्रकिरणोदये // 49 // दिवसे के रात्रे, सुखमां के दुःखमां, शोकमां के हर्षमां, घरमां के बहार, भूखमां के तृप्तिमां, गमनमा के स्थानमा (स्थिरतामां) परमेष्ठीओनुं ध्यान करवू जोईए // 42 // जेम दहीमां माखण अने कवितामां ध्वनि सारभूत छे तेम जिनोक्त धर्मानुष्ठानोमां परमेष्ठि-नमस्कार 20 सारभूत छे // 43 // श्रेष्ठ भावपूर्वक पंचपरमेष्ठि नमस्कार महामंत्रनुं स्मरण करवाथी अग्नि जल बनी जाय. छे, साप पण पुष्पनी माळा बनी जाय छे अने विष पण अमृत बनी जाय छे, कृपाण पण हाररूप बनी जाय छे, सिंह पण हरण बनी जाय छे, शत्रु पण मित्र बनी जाय छे, दुर्जन पण सज्जन बनी जाय छे, अरण्यो पण गृहो बनी जाय छे, चोरो पण रक्षक बनी जाय छे, क्रूर एवा प्रहो पण शीघ्रतः अनुग्रह करनारा 25 बनी जाय छे, खराब शकुनो पण सारां शकुनो जे फळ आपे छे, दुष्ट स्वप्नो पण सारां स्वप्नो जेवा तत्क्षण बनी जाय छे, शाकिनीओ पण अत्यंत वात्सल्यभाव बतावनारी माता जेवी बनी जाय छे, विकराळ वेतालो पण पिता जेवा (प्रेमाळ) बनी जाय छे अने दुष्ट मंत्रो, तंत्रो अने यंत्रो वगेरेना प्रयोगो पण असमर्थ बनी जाय छे। सूर्यनो उदय थया पछी धूवडो क्या सुधी क्रीडा करी शके ! // 44-19 //
SR No.004318
Book TitleNamaskar Swadhyay Sanskrit Vibhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhurandharvijay, Jambuvijay, Tattvanandvijay
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1962
Total Pages398
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size10 MB
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