________________ [71-26] श्रीचन्द्रतिलकोपाध्यायरचितः श्रीअभयकुमारचरित-संदर्भः परमेष्ठिन एतेजाईन्तः सिद्धाश्च सूरयः। उपाध्याया मुनिश्रेष्ठा इति पश्च भवन्त्यहो! // 36 // अर्हन्तः प्रातिहार्यायां, पूजामर्हन्ति तामिति / विख्याता अरिहन्तारः, कारिहननात् पुनः // 37 // तथा भवन्त्यरुहन्तः, कर्मवीजीपदाहतः / सर्वकर्मक्षयात् सिद्धाः, पञ्चदशमिदा इति // 38 // . स्त्रीस्वान्यगृहिलिङ्गकतीर्थतीर्थकरेतरपुषण्ठानेकप्रत्येकस्वयंबुद्धान्यबोधिताः / / 39 // ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तपो-वीर्यस्वरूपकैः / आचारैः पञ्चभिर्युक्ता, आचार्या अनुयोगिनः // 40 // उपाध्यायाः सदा शिष्यस्वाध्यायाध्ययनोधताः। क्रियासमुदयैर्मोक्षं, साधयन्तश्च साधवः // 41 // अनुवाद अहीं अरिहंतो, सिद्धो, आचार्यो, उपाध्यायो अने मुनिवरो ए पांच परमेष्ठीओ छे // 36 // प्रातिहार्य वगेरे पूजाने योग्य होवाथी 'अर्हन्त' कहेवाय छे अथवा कर्मरूप शत्रुने हणनारा होवाथी 'अरिहंत' नामे विख्यात छे तथा कर्मबीजोना समूहने बाळी नाखेल होवाथी तेओ 'अरुहन्त' पण 20 कहेवाय छ। सकल कर्मोनो क्षय करवाथी 'सिद्धो' कहेवाय छे। तेओ पंदर प्रकारे छे // 37-38 // ते पंदर मेद आ प्रकारे छे: 1 स्वलिंगसिद्ध, 2 अन्यलिंगसिद्ध, 3 गृहिलिंगसिद्ध, 1 तीर्थसिद्ध, 5 अतीर्थसिद्ध, 6 एकसिद्ध, 7 अनेकसिद्ध, 8 तीर्थंकरसिद्ध, 9 अतीर्थकरसिद्ध, 10 पुंलिंगसिद्ध, 11 लीलिंगसिद्ध, 12 नपुंसकलिंगसिद्ध, 13 स्वयंबुद्धसिद्ध, 14 बुद्धबोधितसिद्ध अने 15 प्रत्येकबुद्धसिद्ध // 39 // 25 - आचार्यो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप अने वीर्यरूप पांच आचारोपी युक्त अने आगम ग्रंथोनो हनुयोग (व्याख्यानादि) करनारा होय छे // 40 // शिष्योने स्वाध्याय कराववामा अने पोताना अध्ययनमा सदा उपमशील होवाथी 'उपाध्यायो' देखाय के, अने किया सम्हो (विविध प्रकारनी क्रियाओ) वडे मोक्षने साधनारा 'साधुओ' कडेवाय // 11 //