________________ विभाग] तत्त्वानुशासन 235 तथा ह्यचरमाङ्गस्य, ध्यानमभ्यस्यतः सदा / निर्जरा संवरश्च स्यात्, सकलाऽशुभकर्मणाम् // 225 // आश्रवन्ति च पुण्यानि, प्रचुराणि प्रतिक्षणम् / यैर्महर्द्धिर्भवत्येष, त्रिदशः कल्पवासिषु // 226 // तत्र सर्वेन्द्रियामोदि, मनसः प्रीणनं परम् / सुखामृतं पिबन्नास्ते, सुचिरं सुरसेवितः // 227 // ततोऽवतीर्य मयेऽपि, चक्रवादिसम्पदः। चिरं भुक्त्वा स्वयं मुक्त्वा, दीक्षां दैगम्बरी श्रितः // 228 // वज्रकायः स हि ध्यात्वा, शुक्लध्यानं चतुर्विधम् / विधूयाष्टापि कर्माणि, श्रयते मोक्षमक्षयम् // 229 // 10 सारश्चतुष्टयेप्यस्मिन् , मोक्षः सद्ध्यानपूर्वकः। इति मत्वा मया किञ्चिद्धथानमेव प्रपश्चितम् // 252 // यद्यप्यत्यन्तगम्भीरमभूमिर्मादृशामिदम् / प्रावर्तिषि तथाप्यत्र, ध्यानभक्तिप्रचोदितः / / 253 // 15 अचरमशरीरीने प्राप्त थतां ध्यानां फळो .. अचरमशरीरीनी मुक्ति आ रीते थाय छे:-सदा ध्याननो अभ्यास करता अचरमशरीरी योगीने सर्व अशुभ कर्मोनी निर्जरा अने संवर थाय छ; अने प्रतिक्षण तेवा प्रचुरपुण्यकर्मोनो आश्रव थाय छे के जेमना उदयथी ते भवांतरमा कल्पवासी देवोमां महर्द्धिक देव थाय छे / त्यां (स्वर्गमा) सर्व इन्द्रियोने आल्हादक तथा मनने प्रसन्नता आपनार एवा श्रेष्ठ सुखरूप अमृतनुं पान करतो अने चिरकाल सुघी 20 देवोथी सेवातो ते सुखेथी रहे छे / ते पछी त्यांथी च्यवीने मर्त्य लोकमां पण चक्रवर्ति आदि पदोनी संपत्तिओने लांबा काळ सुधी भोगवीने पोते ज (वैराग्यथी) छोडी दे छे अने दीक्षाने अंगीकार करे छे। ते काळे वज्रऋषभनाराच संघयणवाळो ते चार प्रकारनां शुमध्यानने आराधीने अने तेथी आठे प्रकारनां कर्मोनो नाश करीने अंते अक्षय एवा मोक्षने पामे छे // 225-229 // 25 'आ ग्रंथमां चार सारभूत तत्त्वो कह्यां छे—बंध, बंधना हेतुओ, मोक्ष अने मोक्षना हेतुओ। ए बधामां पण सारभूत मोक्ष छे। ते प्रशस्त ध्यानपूर्वक ज होय छे,' एम समजीने आ ग्रंथमां में ध्यान- ज कंईक वर्णन कयुं छे // 252 // - जो के आ ध्यानविषय अत्यंत गंभीर छे, मारा जेवानी तेमां पहोंच नथी, छतां पण केवळ त्यानपरनी भक्तिथी प्रेरायेला में अही प्रयत्न कर्यो छे // 253 // 30 .