________________ 230 [संस्कृत नमस्कार स्वाध्याय ततः पश्चनमस्कारैः, पञ्चपिण्डाक्षरान्वितैः / पञ्चस्थानेषु विन्यस्तैर्विधाय सकलीक्रियाम् // 186 // पश्चादात्मानमर्हन्तं, ध्यायेनिर्दिष्टलक्षणम् / सिद्धं वा ध्वस्तकमाणममूर्त ज्ञानभास्वरम् // 187 // नन्वनहेन्तमात्मानमहेन्तं ध्यायतां सताम् / अतस्मिंस्तहो भ्रान्तिर्भवतां भवतीति चेत् // 188 // तन्न चोद्यं यतोऽस्माभिर्भावार्हन्नयमर्पितः / स चाहद्धथाननिष्ठात्मा, ततस्तत्रैव तद्ब्रहः // 189 // परिणमते येनात्मा भावेन स तेन तन्मयो भवति / अहध्यानाविष्टो भावार्हन् स्यात्स्वयं तस्मात् // 190 // येन भावेन यद्रूपं, ध्यायत्यात्मानमात्मवित् / तेन तन्मयतां याति, सोपाधिः स्फटिको यथा // 191 // शरीर निर्माण करवू / तेमां प्रथम देह (पिंड)नी रचना माटे मारुती (वायवीय) धारणा करवी अने पछी देहने निर्मल बनाववा माटे तेजस्वी अने जलीय धारणा क्रमशः करवी, ते पछी पांच * पिंडाक्षरोथी 15 युक्त अने शरीरना पांच स्थानोमा न्यास करायेला एवा पंच नमस्कारो वडे सकलीकरण करवू / ते पछी जेमनुं स्वरूप पूर्वे कहेवामां आव्युं छे एवा श्री अरिहंत परमात्मारूपे अथवा कर्मरहित, अमूर्त अने ज्ञानवडे प्रकाशमान एवा श्री सिद्ध भगवंतरूपे पोताना आत्मानुं ध्यान करतुं // 183-187 // शंका . जो तमारो आत्मा अरिहंत नथी तो पछी तेनुं अरिहंतरूपे ध्यान करता एवा तमने अतत्मां 20 (जे जेवो नथी तेमां) तत्नी (तेवानी ) मान्यतारूप भ्रान्ति तो नथी थती ने? // 188 // समाधान एवी शंका न करवी, कारण के अमे अमारा आत्मानी भाव-अरिहंतरूपे अर्पणा (चितवना) करीए छीए। अरिहंतना ध्यानमां निष्ठ एवो आत्मा ते भाव-अरिहंत छे। तेथी अतत्मां तद्ग्रहरूप भ्रान्ति नथी किन्तु तत्मा (तेमां ) ज तत्नी (तेनी ) यथार्थ मान्यता छे // 189 // 25 जे (अरिहंतादि ) भाववडे आत्मा परिणमे छे, ते ( अरिहंतादि) भाववडे ते (आत्मा) तन्मय (अरिहंतादिमय ) बने छे; तेथी अरिहंतना ध्यानमां निष्ठ एवो आत्मा ते (अरिहंतभाव) थकी पोते ज भाव अरिहंत थाय छे। उपाधि सहित एवा स्फटिक रत्ननी जेम आत्मज्ञ पुरुष जे (अरिहंतादि) भाववडे जे (अरिहंतादि ) रूपे आत्मानुं ध्यान करे छे, ते (अरिहंतादि) भाववडे तन्मयता (तद्भावरूपता)ने पामे छे (अर्थात् जेम स्फटिक-मणि सामे रहेली वस्तुनुं रूप धारण करे छे, तेम आत्मा पण ध्यानवडे ध्येयमय 30 बने छे) // 190-191 // / * आ पांच पिंडाक्षरो प्रायः हाँ ही ह हो हः होवा जोईए।