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________________ विमाग] तत्त्वानुशासन सोऽयं समरसीभावस्तदेकीकरणं स्मृतम् / एतदेव समाधिः स्याल्लोकद्धयफलप्रदः // 137 // किमत्र बहुनोक्तेन, ज्ञात्वा श्रद्धाय तत्वतः। ध्येयं समस्तमप्येतन्माध्यस्थ्यं तत्र विभ्रता // 138 // माध्यस्थ्यं समतोपेक्षा, वैराग्यं साम्यमस्पृहा। वैतृष्ण्यं परमा शान्तिरित्येकोऽर्थोऽभिधीयते // 139 // संक्षेपेण यदत्रोक्तं, विस्तरात्परमागमे / तत्सर्व ध्यातमेव स्याद्धयातेषु परमेष्ठिषु // 14 // . x x x x 'अ'कारं मरुताऽऽपूर्य, कुम्भित्वा 'रेफ'महिना। दग्ध्वा स्ववपुषा कर्म, स्वतो भस्म विरेच्य च // 183 // 'ह' मन्त्रो नभसि ध्येयः, क्षरनमृतमात्मनि / तेनाऽन्यत्तद्विनिर्माय, पीयूषमयमुज्ज्वलम् // 184 // तत्रादौ पिण्डसिद्धयर्थ, निर्मलीकरणाय च / मारुती तैजसीमाप्यां, विदध्याद्धारणां क्रमात् // 185 // 15 ___(आवी रीते परमात्मा साथेनो ध्यातानो अमेद) ते आ 'समरसीभाव' छ। ते ज 'एकीकरण' कहेवायुं छे। एज उभय लोकनां फळोने आपनारी 'समाधि' छे // 137 // .. अहीं बहु कहेवाथी शुं ! तात्त्विक रीते जाणीने, तेवी ज रीते तेना पर श्रद्धा करीने अने ए विषयमां *माध्यस्थ्य धारण करीने आ बधुं ध्यान करवू जोइए // 138 // माध्यस्थ्य, समता, उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, निःस्पृहता, वैतृष्ण्य, परमशान्ति–से बधा शब्दो 20 वडे एक ज अर्य कहेवाय छे // 139 // पंच परमेष्ठिओनुं ध्यान थतां ज, अहीं (पूर्व) जे संक्षेपमां का छे अने परम आगमोमां जे "विस्तारथी कहेवामां आव्युं छे, ते बधुं ध्यान थई ज जाय छे (अर्थात्-परमेष्ठिध्यानमां बीजुं बधुं सयान आवी ज जाय छे) // 140 // 'अहेर्नु ध्यान 25 (पूरकना) वायुवडे 'अ'कारने पूरित करीने अने (कुंभकवडे) कुंभित करीने रेफमांथी नीकळता अग्निवडे पोताना शरीरनी साथे (शरीरने अने) कर्मोने बाळवा. पछी शरीर अने कर्मोना दहनथी थयेल भस्मनुं पोतामांथी विरेचन करवू (ते भस्मने पोतामाथी दूर करवी). पछी जे आत्मा उपर अमृत झरावी रयुं छे एवा 'ह'कार मन्त्रनुं आकाशमां ध्यान करवू. पछी ते अमृतथी एक नवा अमृतमय उज्ज्वल *माध्यस्थ्य शन्दना विशेष अर्थ माटे जुओलोक 139 / 30
SR No.004318
Book TitleNamaskar Swadhyay Sanskrit Vibhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhurandharvijay, Jambuvijay, Tattvanandvijay
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1962
Total Pages398
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size10 MB
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