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________________ 228 [संस्कृत नमस्कार स्वाध्याय सम्यग्ज्ञानादिसम्पन्नाः, प्राप्तसप्तमहर्द्धयः / तथोक्तलक्षणा ध्येयाः, सूर्युपाध्यायसाधवः // 130 // एवं नामादिभेदेन, ध्येयमुक्तं चतुर्विधम् / अथवा द्रव्यभावाम्यां, द्विधैव तदवस्थितम् // 131 // द्रव्यध्येयं बहिर्वस्तु, चेतनाऽचेतनात्मकम् / / भावध्येयं पुनर्पुयसम्निमध्यानपर्ययः // 132 // ध्याने हि विभ्रति स्थैर्य, ध्येयरूपं परिस्फुटम् / आलेखितमिवाभाति, ध्येयस्याऽसनिघावपि // 133 // धातुपिण्डे स्थितश्चैवं, ध्येयोऽर्थो ध्यायते यतः। ध्येयं पिण्डस्थमित्याहुरत एव च केवलम् // 134 // यदा ध्यानबलाद्धयाता, शून्यीकृत्य स्वविग्रहम् / ध्येयस्वरूपविष्टत्वात्, तादृक् सम्पद्यते स्वयम् // 135 // तदा तथाविधध्यानसंवित्तिध्वस्तकल्पनः। स एव परमात्मा स्याद् , वैनतेयश्च मन्मथः // 136 // 10 15 सम्यग्ज्ञानादिथी संपन्न, सात महाऋद्धिओवाळा (:) अने शास्त्रोक्त लक्षणोवाळा आचार्य, उपाध्याय अने साधु भगवंतोतुं ध्यान करवू // 130 // एवी रीते नामादिमेदोथी चार प्रकारनुं ध्येय का, अथवा ते (ध्येय) द्रव्य अने भावमेदे बे प्रकार- ज छे // 131 // चेतन के जडरूप बाह्य वस्तु ते द्रव्य-ध्येय छे अने ध्येय (अरिहंतादि) सदृश जे ध्याननो 20 पर्याय ते भाव-ध्येय छे // 132 // __ध्यान ज्यारे स्थिरताने धारण करे छे, त्यारे ध्येय नजीक न होवा छतां पण जाणे (सामे) आलेखित होय एवँ अत्यंत स्पष्ट भासे छे // 133 // एज प्रकारे ज्यारे सप्त धातुना पिंडमां (देहमा) ध्येय वस्तुनुं ध्यान कराय छे त्यारे ते ध्येयने (ध्यानने) पिंडस्थ कहेवाय छे एथी ज केवल (कैवल्य, केवलज्ञान :) प्राप्त थाय छे // 134 // 25 ज्यारे ध्याता ध्यानना बळे स्वदेहने (स्वआकृतिने) शून्य करीने ध्येयस्वरूपे विष्ट होवाथी स्वयं तेना जेत्रो बनी जाय छे, त्यारे तेवा प्रकारना ध्यानना संवेदनथी नाश पाम्या छे सर्व विकल्पो जेना एवो ते पोते ज परमात्मा, गरुड अथवा कामदेव बनी जाय छे // 135-136 // 1 गरुड अने कामदेवना विशेषार्थ माटे जुओ श्लोक 205 /
SR No.004318
Book TitleNamaskar Swadhyay Sanskrit Vibhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhurandharvijay, Jambuvijay, Tattvanandvijay
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1962
Total Pages398
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size10 MB
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