________________ नमस्कार स्वाध्याय [संस्कृत एवंविधमिदं वस्तु, स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मकम् / प्रतिक्षणमनाद्यन्तं, सर्व ध्येयं यथास्थितम् // 115 // अर्थव्यञ्जनपर्याया, मूर्तामूर्त्ता गुणाश्च ये / यत्र द्रव्ये यथावस्थास्तांश्च तत्र तथा स्मरेत् // 116 // पुरुषः पुद्गलः कालो, धर्माधर्मी तथाऽम्बरम् / षड्विधं द्रव्यमानातं, तत्र ध्येयतमः पुमान् // 117 / / सति हि ज्ञातरि ज्ञेयं, ध्येयतां प्रतिपद्यते / ततो ज्ञानस्वरूपोऽयमात्मा ध्येयतमः स्मृतः // 118 // तत्रापि तत्त्वतः पञ्च, ध्यातव्याः परमेष्ठिनः। चत्वारः सकलास्तेषु, सिद्धः स्वामीति निष्कलः // 119 // अनन्तदर्शन-ज्ञानसम्यक्त्वादिगुणात्मकम् / स्वोपात्तानन्तरत्यक्तशरीराकारधारिणम् // 120 // साकारश्च, निराकारममूर्तमजरामरम् / जिनविम्बमिव स्वच्छस्फटिकप्रतिविम्बितम् // 121 // ___एवी जातनी आ वस्तु प्रतिक्षण स्थिति-उत्पत्ति-व्ययात्मक अने अनादि-अनंत छ। सर्व ध्येयर्नु यथास्थितिरूपे (जे जेयूँ होय, तेनुं ते प्रकारे) ध्यान करवू जोईए // 115 // . ___ जे द्रव्यमा अर्थपर्यायो, व्यंजनपर्यायो अने मूर्त के अमूर्त गुणो जेवी रीते रहेला होय, तेवी रीते तेमनुं स्मरण करवू // 116 // आत्मा, पुद्गल, काल, धर्म, अधर्म अने आकाश, ए छ प्रकार- द्रव्य मानवामां आव्युं छे / तेमां 20 आत्मा ते ध्येयतम (श्रेष्ठ ध्येय) छे // 117 // भावघ्यय ज्ञाता होय तो ज ज्ञेय ध्येयताने पामे छे तेथी ज्ञानस्वरूप आ आत्माने ध्येयतम कह्यो छे॥११८॥ जीव द्रव्योमां पण तत्त्वथी पांच परमेष्ठिओ ध्येय छे / तेमां अरिहंत, आचार्यादि सकल (कर्मादि उपाधि सहित) छे अने सिद्ध स्वामी (?) होवाथी निष्कल (निरुपाधि) छे // 119 // 25. अनंत एवा दर्शन, ज्ञान, सम्यक्त्व वगेरे गुणोवाळा, चरम भवमा जे देह पोताने प्राप्त थयो हतो अने जे पोते तजी दीधो तेना आकार (चरम देहाकार) ने धारण करनारा, (ए अपेक्षाए) साकार, निराकार, अमूर्त, जरारहित, मृत्युरहित, निर्मल स्फटिक रत्नमां प्रतिबिंबित थयेल जिनबिंबसदृश, लोकना 1 'घट' शब्दना पर्यायवायी शब्दो- कलश, कुंभ, वगेरे व्यंजन (शब्द) पर्यायो' कहेवाय छे अने 'घट पदार्थना रक्तत्व, मृण्मयत्व, वगेरे 'मर्थपर्यायो' कहेवाय छे / अथवा त्रिकालवर्ती पर्याय ते व्यंजन पर्याय अने 30 वर्तमान कालवर्ती सूक्ष्म पर्याय ते अर्थ पर्याय। जेम आत्माना विषयमा केवलज्ञान ते शुद्ध व्यंजनपर्याय अने तत्कालवर्ती केवलज्ञानोपयोग ते अर्थपर्याय /