________________ [70-25] श्रीमन्नागसेनाचार्य-विरचित-तत्त्वानुशासन 'संदर्भः स्वाध्यायः परमस्तावज्जपः पञ्चनमस्कृतेः। पठनं वा जिनेन्द्रोक्तशास्त्रस्यैकाग्रचेतसा / / 80 // स्वाध्यायाद्धयानमध्यास्तां, ध्यानात्स्वाध्यायमामनेत् / ध्यानस्वाध्यायसंपत्त्या, परमात्मा प्रकाशते // 81 // नाम च स्थापनं द्रव्यं, भावश्चेति चतुर्विधम् / समस्तं व्यस्तमप्येतद् , ध्येयमध्यात्मवेदिभिः // 99 // वाच्यस्य वाचकं नाम, प्रतिमा स्थापना मता। गुण-पर्ययवद् द्रव्यं, भावः स्याद् गुणपर्ययौ // 10 // आदौ मध्येऽवसाने यद्, वाङ्मयं व्याप्य तिष्ठति / हृदि ज्योतिष्मदुद्गच्छन्नामध्येयं तदर्हताम् / / 101 / - 20 अनुवाद एकाग्र मनथी पंचपरमेष्ठि नमस्कार महामंत्रनो जाप अथवा श्रीजिनेश्वरदेवे कहेला शास्त्रोनुं 15 अध्ययन ए सर्वोत्कृष्ट स्वाध्याय छे. 80. * स्वाध्यायथी ध्यानमा चढे अने ध्यानथी स्वाध्यायने सविशेष चिंतवे, एम ध्यान अने स्वाध्याय रूप संपत्तिथी परमात्मतत्त्वनो (शुद्धात्मस्वरूपनो) प्रकाश थाय छे. (ध्यानमा ज्यारे न रही शके त्यारे स्वाध्यायनो आश्रय ले, एवो पण बीजा चरणनो अर्थ थई शके छे.) 81. चतुर्विध-ध्येय नामध्येय, स्थापनाध्येय, द्रव्यध्येय अने भावध्येय एम ध्येय चार प्रकारचें छे. अध्यात्मना जाणकार महात्माओए एनुं (चतुर्विध-ध्येयनु) मेगुं अथवा प्रत्येकनुं जुदुं जुदुं ध्यान करवू जोईए. 99. वाच्य-अभिधेय पदार्थना वाचक शब्दने नाम अने प्रतिमाने स्थापना कहेवाय छे. गुण अने पर्यायवाळू ते द्रव्य छे; अने गुण अने पर्याय ते भाव छे. 100. नामध्येय . जे (वाङ्मय-सर्वशास्त्रनी) आदिमां, मध्यमां अने अंतमा एम सकल वाङ्मयने व्यापीने रहेलं * छे ते, ज्योतिर्मय अने ऊर्ध्वगामी एवा श्री अरिहंत भगवंतोना नामर्नु हृदयमां ध्यान कर जोईए (नामध्येय-'अरिहंत-अर्ह' वगेरे). 101. 25