________________ विभाग] परमात्मपञ्चविंशतिका श्रमः शास्त्राश्रयः सर्वो, यज्ज्ञानेन फलेग्रहिः / ध्यातव्योऽयमुपास्योऽयं, परमात्मा निरञ्जनः // 14 // नान्तराया न मिथ्यात्वं, हासो रत्यरती च न / न भीर्यस्य जुगुप्सा नो, परमात्मा स मे गतिः / / 15 // न शोको यस्य नो कामो, नाज्ञानांविरती तथा / नावकाशश्च निद्रायाः, परमात्मा स मे गतिः // 16 // रागद्वेषौ हतौ येन, जगत्त्रयभयङ्करौं / स त्राणं परमात्मा मे, स्वमे वा जागरेऽपि वा // 17 // उपाधिजनिता भावा, ये ये जन्मजरादिकाः। तेषां तेषां निषेधेन, सिद्धं रूपं परात्मनः // 18 // अतद्वथावृत्तितो भिमं, सिद्धान्ताः कथयन्ति तम् / .. वस्तुतस्तु न निर्वाच्यं, तस्य रूपं कथञ्चन // 19 // . जाननपि यथा म्लेच्छो, न शक्नोति पुरिगुणान् / प्रवक्तुमुपमाभावात् , तथा सिद्धसुखं जिनः // 20 // शास्त्रने आश्रयीने करेलो परिश्रम जेना ज्ञानथी फळवाळो (सफळ) थाय छे, ते आ निरंजन 15 एवा परमात्मा ध्यान करवा योग्य छे अने उपासना करवा योग्य छे // 14 // जेमने अंतरायो (पांच प्रकारना अंतरायकर्म) नथी, मिथ्यात्व नथी, हास्य नथी, रति नथी, अरति नथी, भय नथी, ते परमात्मा मने शरण हो // 15 // . जेमने शोक नथी, काम नथी, अज्ञान नथी, अविरति नथी अने निद्रा नथी, ते परमात्मा मने शरण हो // 16 // 20 त्रणे जगतने भयमीत करनार एवा राग अने द्वेषने जेमणे हण्या छे ते परमात्मा जागृत अवस्थामां अने स्वप्न अवस्थामां पण मने शरण हो // 17 // कर्मरूप उपाधिथी जनित एवा जन्म जरा वगेरे जे जे भावो छे ते ते बधा भावोना निषेधवडे परमात्मानुं स्वरूप सिद्ध थाय छे // 18 // सिद्धान्तो 'अ-तद्' रूप व्यावृत्तिवडे ('आ नहि, आ नहि' एम परमात्माथी भिन्न वस्तुओनी 25 व्यावृत्ति द्वारा) परमात्माने इतर वस्तुओथी भिन्न कहे छे, परन्तु परमार्थथी तो ते परमात्मानुं स्वरूप कोई पण प्रकारे निर्वाच्य (संपूर्ण रीते कही शकाय तेवू) नथी // 19 // - जेम गामडिओ माणस नगरीना गुणोने जाणवा छतां पण उपमाना अभावमां कहेवाने शक्तिमान यतो नथी तेम सर्वज्ञ भगवान पण सिद्धना सुखनुं वर्णन उपमा न होवायी करी शकता नथी // 20 // 1. जुओ श्री आचारांग सूत्र अ. 5, अंतिम सूत्र-'न सद्दे, न स्वे, न रसे......।' 30