________________ 190 [संस्कृत नमस्कार स्वाध्याय बुद्धो जिनो हृषीकेशः, शम्भुब्रह्माऽऽदिपुरुषः। इत्यादि नामभेदेऽपि, नार्थतः स विभिद्यते // 7 // धावन्तोऽपि नयाः नैके (सर्वे), तत्स्वरूपं स्पृशन्ति न / समुद्रा इव कल्लोलैः, कृतप्रतिनिवृत्तयः // 8 // शब्दोपरक्ततद्रूपबोधकृन्नयपद्धतिः। निर्विकल्पं तु तद्रूपं, गम्यं नानुभवं विना // 9 // केषां न कल्पनादर्वी, शास्त्रक्षीरानगाहिनी। स्तोकास्तत्त्वरसास्वादविदोऽनुभवजिह्वया // 10 // जितेन्द्रिया जितक्रोधा, दान्तात्मानः शुभाशयाः / परमात्मगति यान्ति, विभिभैरपि वर्मभिः // 11 // नूनं मुमुक्षवः सर्वे, परमेश्वरसेवकाः। दूरासन्नादिभेदस्तु, तभृत्यत्वं निहन्ति न // 12 // नाममात्रेण ये दृप्ता, ज्ञानमार्गविवर्जिताः। न पश्यन्ति परात्मानं, ते घूका इव भास्करम् // 13 // 15 तेना बुद्ध, जिन, हृषीकेश, शंभु, ब्रह्मा, आदिपुरुष वगेरे मिन्न भिन्न नामो होवा छतां पण अर्थथी ते परमात्मामां मेद करी शकातो नथी // 7 // जेम समुद्रो पोताना तरंगोवडे मर्यादा बहारनी भूमिने स्पर्श करवा जाय छे छतां किनारा साथे अथडाईने पोताना तरंगो साथे पाछा फरे छे, तेम नयो पोतानी विकल्प जाळ वड़े परमात्म-स्वरूपने स्पर्शवा दोडे छे-प्रयत्न करे छे, छतां ते स्वरूपने पामी शकता नथी किन्तु पाछा फरे छे (तात्पर्य ए छे के 20 परमात्मानुं रूप सर्व नयपद्धतिओथी पर छे, तेथी ते नयोनी पकडमां शी रीते आवी शके!) // 8 // __नय पद्धति तो शब्दथी उपरक्त एवा परमात्मरूपनो बोध करावनारी छे, ज्यारे तेनुं निर्विकल्प रूप तो अनुभव विना समजाय तेवू नथी // 9 // क्या पुरुषनी कल्पनारूप कडछी शास्त्ररूप क्षीरानमा प्रवेश करती नथी ? परन्तु अनुभवरूप जीभवडे तत्त्वना रसास्वादने जाणनारा पुरुषो तो थोडा ज होय छे // 10 // 25 जितेन्द्रिय, जितक्रोध, दान्त अने शुभ आशयवाळा महात्माओ मिन्न मिन्न मार्गोथी पण परमात्मगतिने प्राप्त करे छे // 11 // खरेखर सर्व मुमुक्षुओ परमेश्वरना सेवक छे, दूरपणानो के नजीकपणानो मेद परमात्माना सेवकपणामां व्याघात करी शकतो नथी। (कोई नजीकमां मोक्षे जनारा होय, तो कोई लांबा काळ पछी, पण तेथी परमात्मसेवकतामां भेद पडतो नथी) // 12 // .. 30 . 'बुद्ध ज परमात्मा' छे', 'शंभु ज परमात्मा छे' इत्यादि रीते जेओ नाममात्रथी गर्वित छे तेओ ज्ञानमार्गथी दूर छे। जेम घुबडो सूर्यने जोई शकता नथी तेम तेओ परमात्माने जोई शकता नथी // 13 //