________________ [63-18] महामहोपाध्यायश्रीयशोविजयगणिविरचिता परमात्मपञ्चविंशतिका। परमात्मा परंज्योतिः, परमेष्ठी निरञ्जनः / अजः सनातनः शम्भुः, स्वयम्भूर्जयताज्जिनः // 1 // नित्यं विज्ञानमानन्दं, ब्रह्म यत्र प्रतिष्ठितम् / शुद्धबुद्धस्वभावाय, नमस्तस्मै परात्मने // 2 // अविद्याजनितैः, सर्वैर्विकारैरनुपद्रतः। व्यक्त्या शिवपदस्थोऽसौ, शक्क्या जयति सर्वगः // 3 // . यतो वाचो निवर्तन्ते, न यत्र मनसो गतिः। शुद्धानुभवसंवेद्य, तद्रूपं परमात्मनः // 4 // न स्पर्शो यस्य नो वर्णो, न गन्धो न रस-श्रुती / शुद्धचिन्मात्रगुणवान्, परमात्मा स गीयते // 5 // माधुर्यातिशयो यद्वा, गुणौधः परमात्मनः / तथाऽऽख्यातुं न शक्योऽपि, प्रत्याख्यातुं न शक्यते // 6 // 10 - अनुवाद . परमात्मा, परंज्योति, परमेष्ठी, निरंजन, अज, सनातन, शम्भु अने स्वयंभू एवा श्री जिनेश्वर भगवान जयवंता वर्तो // 1 // जेनामां नित्य विज्ञान (केवल ज्ञान), आनंद अने ब्रह्म प्रतिष्ठित छे अने जेओ शुद्ध अने बुद्ध स्वभाववाळा छे ते परमात्माने हुं नमस्कार कर छ॥२॥ 20 - अविद्याथी उत्पन्न थयेला सर्व विकारोथी अक्षुब्ध, व्यक्तिरूपे मोक्षमा रहेला किन्तु शक्तिरूपे सर्वव्यापी एवा परमात्मा जयवंता वर्ते छे // 3 // __ज्यांथी (जे स्वरूपनुं वर्णन न करी शकवाथी) वाणीओ पाछी फरे के अने ज्यां मननी गति नथी किन्तु केवळ शुद्ध अनुभव ज्ञानवडे जे संवेद्य छे ते परमात्मरूप छे // 4 // जेने स्पर्श नथी, वर्ण नथी, गन्ध नथी, रस नथी, तथा श्रुति नथी किन्तु जे शुद्ध चिन्मात्र 25 गुणवाळा छे ते परमात्मा कहेवाय छे // 5 // - अथवा परमात्माना गुणोनो समूह माधुर्यातिशयरूप छे / ते गुणसमूह यथार्यरीते कही शकातो नथी, छतां ते तेवी रीते नथी एम पण कही शकातुं नथी // 6 //