________________ [संमत नमस्कार स्वाध्याय सुरासुराणां सर्वेषां, यत् सुखं पिण्डितं भमेत् / एकत्रापि हि सिद्धस्य, तदनन्ततमांशगम् // 21 // अदेहा दर्शनज्ञानोपयोगमयमूर्तयः / / आकालं परमात्मानः, सिद्धाः सन्ति निरामयाः // 22 // . . लोकाग्रशिखरारूढाः, स्वभावसमवस्थिताः / भवप्रपञ्चनिर्मुक्ताः, युक्तानन्तावगाहनाः // 23 // इलिका भ्रमरीध्यानात् , भ्रमरीत्वं यथाश्नुते / ... तथा ध्यायन् परात्मानं, परमात्मत्वमामुयात् // 24 // परमात्मगुणानेवं, ये ध्यायन्ति समाहिताः / लभन्ते निभृतानन्दास्ते यशोविजयश्रियम् // 25 // ॥इति परमात्मपञ्चविंशतिका॥ समग्र देवताओ अने असुरोनुं सुख एकज़ स्थळे पिंडित करवामां आवे तो पण ते सिद्धना सुखनो अनन्ततम भाग ज थाय // 21 // . देह रहित, केवळ दर्शनोपयोग अने केवळ ज्ञानोपयोगमय रूपवाळा अने निरामय एवा सिद्ध 15 परमात्माओ सर्वदा विद्यमान होय छे // 22 // ते सिद्ध भगवंतो लोकाग्र (सिद्धशिला) रूप शिखर पर आरूढ, स्वभावमा समवस्थित अने भवप्रपंचथी विनिर्मुक्त छे / एक सिद्धनी अवगाहनावाळा आकाश प्रदेशोमा अनन्त सिद्धो रहेला छे // 23 // जेम इयळ भ्रमरीना ध्यानथी भ्रमरीपणाने पामे छे, तेम परमात्मानुं ध्यान करतो जीवात्मा परमात्मपणाने पामे छे, // 24 // 20 ए रीते परमात्मगुणोनुं जेओ समाहित मनवडे ध्यान करे: छे तेओ परमानंदथी परिपूर्ण बनीने (परिपूर्ण) यश अने (परिपूर्ण) विजयरूप मोक्षलक्ष्मीने पामे छे // 25 // परिचय उपा० श्रीयशोविजयजीए रचेली आ पचीशी सुप्रसिद्ध छे। अनेक संग्रहग्रंथोमा ए प्रकाशित थयेल छे। तेमांना एक प्रकाशन उपरथी आ पचीशीनो, संग्रह करीने, तेने अनुवाद साथे अहीं प्रगट करी छ। 25 परमेष्ठी एवा जिनेश्वरनुं शुद्ध स्वरूप आ पचीशीमां उपाध्यायजी महाराजे सुंदर रीते प्रदर्शित कयु छ। सत्तरमा सैकामां थयेला आ सर्वांगीण विद्वाननो परिचय 'यशोविजयस्मृतिग्रंथ' माथी जाणी शकाय एम छे।