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________________ 178 [संस्कृत नमस्कार स्वाध्याय सप्तपष्टि-पदैर्वश्ये, वर्णमालिख्यते च यत् / क्रमादावर्चयन् सम्यगेति शातै(शान्ते)निशान्तताम् // 11 // आद्याक्षराण्यपीष्टार्थसिद्धयै स्युः परमेष्ठिनाम् / बिन्दुरप्यमृत(तं) किं न, नाशयेद् विषविक्रियाम् // 12 // . . कराङ्गुलीषु विन्यस्यौदादीन् ध्यानमानयन् / प्रत्यूहपन्नगव्यूहव्यपोहे गरुडायते // 13 // गुरून् पञ्च क्रमाद् ध्यायन् , मुद्रया परमेष्ठिनाम् / गूढारूढमचिरात् कर्मग्रन्थि विमोचयेत् // 14 // षोडशाक्षरमान (?) श्रद्धापरमः परमेष्ठिनाम् / प्राणी प्रणिदधानोऽप्युपासफलमेधते // 15 // 10 नमस्कार महामन्त्र-सड(अड)सठ अक्षरो अथवा पदो वश्यादिने उद्देशीने जे (रक्तादि) वर्णमां आलेखवामां आवे ते वर्ण मुजब वश्यादि कृत्य थाय छे। वशीकरण द्वारा वश बनीने ते पग वगेरेने पूजतो आवे छे (आवीने पगे पडे छे) अने शान्तिनुं धाम बनी जाय छे-शान्त बनी जाय छे // 11 // परमेष्ठिओना प्रारंभना अक्षरो (एटले अरिहंतनो अ, सिद्धनो सि, आचार्यनो आ, उपाध्यायनो 15 उअने साधुनो सा-असिआउसा) पण इच्छित वस्तुनी प्राप्ति माटे थाय छे। शुं बिन्दु (जेटलं) पण अमृत झेरनी विक्रियानो नाश नथी करतुं ? अर्थात् करे ज छे // 12 // पांचे पदो बोला क्रमशः बन्ने अंगूठा वगेरेना संयोगथी अरिहंतादिनुं करांगुलीओमां न्यास करीने अरिहंतादिनुं ध्यान करतो पुण्यात्मा विघ्नरूप सर्पसमूहने विषे गरुडरूप थाय छे // 13 // परमेष्ठिमुद्रावडे अनुक्रमे पांच (अरिहंतादि) गुरुओनुं ध्यान करतो (आत्मा) गूढ अने वघेली (दृढ 20 मूलवाळी) कर्मप्रन्थिने शीघ्र छोडी नाखे छे / (मंत्रशास्त्रनी दृष्टिए 108 जापथी बीजाए करेल कामणरूप प्रथि-बन्धनने छोडी नाखे छे) // 14 // ___ अत्यन्त श्रद्धावाळो आत्मा परमेष्ठिओना सोळ अक्षरवाळा (अ-रि-ह-त-सि-द्ध-आ-य-रिय-उ-व-ज्झा-य-सा-हु) मंत्रनुं ध्यान करवाथी एक उपवासना फळने पामे.छे* // 15 // - 11. षष्टौ पदे / 12. कोष्ठकेषु / 25 13. पञ्चस्वपि पदेषु क्रमेणाङ्गुष्ठद्वयादिसंयोगः। 14. विघ्न / 15. नैव तीर्यते। 16. 108 जापेम परकृतदुष्टकार्मणप्रन्थिभेदः। 17. 'मरिहंत-सिद्ध-आयरिय-उवझाय-साहु' इत्यक्षराण्यष्टदलकमले सकर्णिके नवपदी जपन् वा चतुर्थफलमभुते। शतानि त्रीणि षड्वर्ण (मरिहंत सिद्ध) चत्वारि चतुरक्षरं (अरिहंत)पञ्च(चाs)वर्ण जपन् योगी चतुर्थफलमभुते। 18. नोऽप्यौपवस्त्रफल / *अर्थात् बसो वार ए सोळ अक्षरोने कर्णिकासहित एवा कमळमां अरिहंतादि नवपदोने स्थापीने अथवा त्रणसो 30 वार छ वर्णवाळो 'अरिहंत सिद्ध' एवो मंत्र, अथवा चारसो वार चार वर्णवाळो 'अरिहंत' एवो मंत्र, अथवा पांचसो वार 'अ(s)' वर्णने जपतो योगी एक उपवास, फळ मेळवे छे। आ तो स्थूळ फळ छे, खरी रीते तो ते स्वर्ग के . अपवर्गने पण पामे छे। -- :
SR No.004318
Book TitleNamaskar Swadhyay Sanskrit Vibhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhurandharvijay, Jambuvijay, Tattvanandvijay
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1962
Total Pages398
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size10 MB
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