________________ विभाग] नमस्कारमाहात्म्यम् 167 दुरितं दतो याति, साधिर्व्याधिः प्रणश्यति / दारिद्यमुद्रा विद्राति, सम्यग्दृष्टे जिनेश्वरे // 7 // निन्धेन मांसखण्डेन, किं तया जिह्वया नृणाम् / माहात्म्यं या जिनेन्द्राणां, न स्तवीति क्षणे क्षणे // 8 // अर्हच्चरित्र-माधुर्य-सुधास्वादानभिज्ञयोः। कर्णयोश्छिद्रयोऽपि, स्वल्पमप्यस्ति नान्तरम् // 9 // सर्वातिशय-सम्पन्नां, ये जिनार्चा न पश्यतः। न ते विलोचने किन्तु, वदनालय-जालके // 10 // अनार्येऽपि वसन् देशे, श्रीमानार्द्रकुमारकः / अर्हतः प्रतिमां दृष्ट्वा, जज्ञे संसार-पारगः // 11 // जिन-बिम्बेक्षणाज्ज्ञात-तत्त्वः शय्यम्भव-द्विजः। निषेव्य सुगुरोः पादानुत्तमार्थमसाधयत् // 12 // अहो! साचिक-मूर्धन्यो, वज्रकर्णो महीपतिः। सर्वनाशेऽपि योऽन्यस्मै, न ननाम जिनं विना // 13 // श्री जिनेश्वर- सम्यक् प्रकारे दर्शन थतां ज प्राणीओना पापो अत्यन्त दूर चाल्या जाय छे, 15 आघि (मननी पीडा) अने व्याधि (शरीरनी पीडा) नाश पामे छे; तथा दरिद्रतानी मुद्रा जती रहे जे जीभ श्री जिनेश्वरना माहात्म्यनी क्षणे क्षणे स्तुति न करे, ते निंदवा लायक मांसना टुकडा जेवी जिह्वा शा कामनी // 8 // जे कान श्री अरिहंतना चरित्रनी मधुरता रूप अमृतना आस्वादथी अजाण होय, ते कान 20 अथवा छिद्रमां कई पण तफावत नथी॥९॥ . सर्व अतिशयोयी संपन्न एवी श्री जिनप्रतिमाने जे नेत्रो जोता नथी ते नेत्र नथी, परंतु मुखरूपी घरनां जाळीयां छे // 10 // अनार्य देशमा वसता एवा पण श्रीमान् आर्द्रकुमार श्रीअरिहंत भगवंतनी प्रतिमाने निहाळीने संसार-सामरना पारगामी थया हता // 11 // - 25 - श्री जिनप्रतिमाना दर्शनथी श्रीशय्यंभव नामना ब्राह्मणे तत्त्वने जाण्यु अने ते पछी श्री सुगुरुना चरण-कमळनी सेवा करीने तेओ उत्तमार्थ-मोक्षने पाम्या // 12 // अहो ! सात्त्विक-शिरोमणि श्रीवज्रकर्ण नामना राजाए राज्य वगेरे सर्व वस्तुनो नाश उपस्थित थवा छतां पण एक जिनेश्वर देव विना बीजाने नमस्कार न कर्यो ते न ज कर्यो // 13 //