________________ विभाग] 163 नमस्कारमाहात्म्यम् प्रदीप्ते भवने यद्वच्छेषं मुक्त्वा गृही सुधीः / गृह्णात्येकं महारत्नमापनिस्तारण-क्षमम् / / 32 // आकालिक-रणोत्पाते, या कोऽपि महाभटः / अमोघमस्त्रमादत्ते, सारं दम्भोलि-दण्डवत् / / 33 // एवं नाशक्षणे सर्व-श्रुतस्कन्धस्य चिन्तने / प्रायेण न क्षमो जीवस्तस्मात्तद्गत-मानसः // 34 // द्वादशाङ्गोपनिषदं, परमेष्ठि-नमस्कृतिम् / धीरधीः सल्लसल्लेश्यः, कोऽपि स्मरति साविकः // 35 // समुद्रादिव पीयूषं, चन्दनं मलयादिव / नवनीतं यथा दनो, वज्र वा रोहणादिव // 36 // आगमादुद्भुतं सर्व-सारं कल्याणसेवधिम् / परमेष्ठि-नमस्कारं, धन्याः केचिदुपासते // 37 // संविग्न-मानसाः स्पष्ट-गम्भीर-मधुर-स्वराः।। योगमुद्राधर-कराः, शुचयः कमलासनाः // 38 // उच्चरेयुः स्वयं सम्यक्, पूर्णां पञ्च-नमस्कृतिम् / उत्सर्गतो विधिरयं, ग्लान्यांनते न चेत्क्षमाः // 39 // 10 - जेम घरमा आग लागे त्यारे बुद्धिशाळी घरनो मालीक बीजी बधी वस्तु मूकी दईने आपत्तिसमये रक्षण करवामां समर्थ एवा एक सारभूत महाकिंमती रत्नने ज ग्रहण करे छे, अथवा कोई मोटो सुभट अकाळे प्राप्त थयेला रणसंग्राममां वज्रदंड समान सारभूत अमोघ शस्त्रने ज धारण करे छे, ए ज प्रमाणे मरणसमये के ज्यारे प्रायः सर्व श्रुतस्कंध, (सर्व शास्त्रोनु) चितवन करी शकातुं नथी, त्यारे धीर बुद्धिवाळो 20 अने विशुध्यमान शुभ लेश्यावाळो कोईक सात्त्विक जीव द्वादशांगीना सारभूत आ पंचपरमेष्ठि नमस्कारर्नु ज एकाग्रचित्ते स्मरण करे छे // 32-33-34-35 // ___समुद्रमाथी अमृतनी जेम, मलयाचल पर्वतमांथी चंदननी जेम, दहीमाथी माखणनी जेम अने रोहणाचल पर्वतमांथी वज्ररत्ननी जेम, आगममाथी उद्धरेला सर्वश्रुतना सारभूत अने कल्याणना खजाना समान आ पंचपरमेष्ठि नमस्कारनुं कोईक धन्य पुरुषो ज मनन-चिंतवन करे छे // 36-37 // 25 . शरीरथी पवित्र बनीने, पद्मासने बेसीने, हाथ वडे योगमुद्रा धारण करीने अने संवेग (मोक्षनी अभिलाषा) युक्त मनवाळा भव्य प्राणीए स्पष्ट, गंभीर अने मधुर स्वरे संपूर्ण पंचनमस्कारनो उच्चार करवो। आ विधि उत्सर्गथी जाणवो // 38-39 // 1. अका. ख. ग. हि.। 2. यद्वा ख. ग. हि. / 'न्या चैते ग. हि.।