________________ 158 नमस्कार स्वाध्याय [संस्कृत हुहू-गीतैरपि सुधा-रसर्मन्दार-सौरभैः। दिव्यतल्प-सुखस्पर्शः, सुरीरूपैर्न ये हृताः // 39 // तत् किं ते तरवो यद्वा, शिशवो यदि वा मृगाः ? न ते न ते न ते किन्तु, मुनयस्ते निरञ्जनाः // 40 // 'णं'-कारोऽयं भणत्येवं, त्रिरेखो बिन्दु-शेखरः। गुप्तित्रये लब्धरेखाः सवृत्ताः स्युर्महर्षयः // 41 // नवभेद-जीवरक्षा-सुधाकुण्ड-समाकृतिः। दत्तां नवाक्षरीयं मे, धर्मे भावं नवं नवम् // 42 // इति पञ्चमः प्रकाशः समाप्तः। [षष्ठः प्रकाशः] एष पश्च-नमस्कारः, सर्व-पाप-प्रणाशनः। मङ्गलानां च सर्वेषां, मुख्यं भवति मङ्गलम् // 1 // समिति-प्रयतः सम्यग्, गुप्तित्रय-पवित्रितः। अमुं पञ्च-नमस्कार, यः स्मरत्युपवैणवम् // 2 // 15 हूहू नामना गन्धर्वोना मनोहर गायनो, अमृतरस, कल्पवृक्षना पुष्पोनी सुगंध, दिव्यशय्यानो सुखकारक स्पर्श अने देवांगनाओना रूपो वडे पण जेओ आकर्षाता नथी, तेओ शुं वृक्षो छे ? बाळको छ ? के शुं हरणीयां छे ? ना! ना! ना! तेओ वृक्ष, बाळक के मृगलां नथी; परन्तु तेओ तो निरंजन मुनिओ छे // 39-40 // ___णंकार त्रण रेखावाळो अने माथे अनुस्वारवाळो छे, ते अहीं एम. जणावे छे के त्रण गुप्तिना 20 पालनमा रेखाने (पराकाष्ठाने) पामेला महामुनिओ संपूर्ण सदाचारी होय छे // 41 // नव प्रकारनी जीवरक्षारूप सुधाकुंड समान आकृतिवाळी 'नमो लोए सव्वसाहूणं / ' ए नवाक्षरी मने धर्मने विषे नवो भाव आपो।। 42 // ___ छट्ठो प्रकाश आ पंचपरमेष्ठी नमस्कार सर्व पापोनो नाश करनार छे अने सर्व मंगलोमां श्रेष्ठ मंगल छे // 1 // सम्यक् प्रकारे पांच समितिने विषे प्रयत्नवाळो अने त्रण गुप्तिथी पवित्र थयेलो जे आत्मा आ पंच-परमेष्ठि-नमस्कार- त्रिकाल ध्यान करे छे, तेने शत्रु मित्ररूप थाय छे, विष पण अमृतरूप बने छे, * उपवैणवं-त्रिसन्ध्यमित्यर्थः / 25